अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 35/ मन्त्र 15
अ॒स्मा इदु॒ त्यदनु॑ दाय्येषा॒मेको॒ यद्व॒व्ने भूरे॒रीशा॑नः। प्रैत॑शं॒ सूर्ये॑ पस्पृधा॒नं सौव॑श्व्ये॒ सुष्वि॑माव॒दिन्द्रः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्मै । इत् । ऊं॒ इति॑ । त्यत् । अनु॑ । दा॒यि॒ । ए॒षा॒म् । एक॑: । यत् । व॒व्ने । भूरे॑: । ईशा॑न: ॥ प्र । एत॑शम् । सूर्ये॑ । प॒स्पृ॒धा॒नम् । सौव॑श्व्यै । सुस्वि॑म् । आ॒व॒त् । इन्द्र॑: ॥३५.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्मा इदु त्यदनु दाय्येषामेको यद्वव्ने भूरेरीशानः। प्रैतशं सूर्ये पस्पृधानं सौवश्व्ये सुष्विमावदिन्द्रः ॥
स्वर रहित पद पाठअस्मै । इत् । ऊं इति । त्यत् । अनु । दायि । एषाम् । एक: । यत् । वव्ने । भूरे: । ईशान: ॥ प्र । एतशम् । सूर्ये । पस्पृधानम् । सौवश्व्यै । सुस्विम् । आवत् । इन्द्र: ॥३५.१५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 35; मन्त्र » 15
भाषार्थ -
(भूरेः) प्रभूत सम्पत्ति का (ईशानः) स्वामी परमेश्वर (यद्) जो कि (एकः) एक ही है, वह, (एषाम्) इन उपासकों में से (अस्मै इत् उ) इस ही सच्चे उपासक को (त्यद्) उस प्रसिद्ध मोक्ष का (अनु दायी) अनुदान करता है, (यद्) जिसकी कि उपासक (वव्ने) याचना करता है। (सौवश्व्ये) उत्तम किरणों अर्थात् ज्योति से सम्पन्न (सूर्ये) सहस्रार चक्ररूपी सूर्य में (एतशम्) आये हुए और असम्प्रज्ञात समाधि में मानो सोये पड़े, और (पस्पृधानम्) मुक्ति पद की स्पर्धावाले योगी की (इन्द्रः) परमेश्वर (प्र आवत्) रक्षा करता है, तथा (सुष्विम्) उसके मोक्षधन की रक्षा करता है।
टिप्पणी -
[वव्ने=वनु याचने। अश्व=किरणें। संस्कृतसाहित्य में सूर्य को “सप्ताश्व” कहते हैं। सूर्य की ७ प्रकार की किरणें ७ अश्व हैं, जो कि सूर्य के वाहक हैं। एतशम्=एत+श (शयन)। सुष्विम्=सु+स्व (धन)+इ (वाला, वैदिक प्रत्यय)। सौवश्व्ये=सु+अश्व+ण्यत्=सौ+अश्व+यत्=सौव् अश्व्य (“व्” का आगम, छान्दस)।]