अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 22/ मन्त्र 6
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - तक्मनाशनः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - तक्मनाशन सूक्त
तक्म॒न्व्या॑ल॒ वि ग॑द॒ व्य॑ङ्ग॒ भूरि॑ यावय। दा॒सीं नि॒ष्टक्व॑रीमिच्छ॒ तां वज्रे॑ण॒ सम॑र्पय ॥
स्वर सहित पद पाठतक्म॑न् । विऽआ॑ल । वि । ग॒द॒ । विऽअ॑ङ्ग । भूरि॑ । य॒व॒य॒ । दा॒सीम् । नि॒:ऽतक्व॑रीम् । इ॒च्छ॒ । ताम् । वज्रे॑ण । सम् । अ॒र्प॒य॒ ॥२२.६।
स्वर रहित मन्त्र
तक्मन्व्याल वि गद व्यङ्ग भूरि यावय। दासीं निष्टक्वरीमिच्छ तां वज्रेण समर्पय ॥
स्वर रहित पद पाठतक्मन् । विऽआल । वि । गद । विऽअङ्ग । भूरि । यवय । दासीम् । नि:ऽतक्वरीम् । इच्छ । ताम् । वज्रेण । सम् । अर्पय ॥२२.६।
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 22; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
(व्याल) विशेषरूप में समाप्त कर देनेवाले! (वि गद) व्यक्त वाणी बोलने से विगत कर देनेवाले! (व्यङ्ग) अङ्गों को विकृत कर देनेवाले ! (तक्मन्) जीवन को कृच्छ्र कर देनेवाले हे ज्वर (भूरि) प्रभूतरूप में (यावय) हमें तू अपने से पृथक् कर दे। (निष्टक्वरीम्) तक्सा से रहित, (दासीम् ) परन्तु क्षीणा हुई स्त्री को (इच्छ) तू चाह, (ताम) उसे (वज्रेण) निज वज्र द्वारा (समर्पय) समर्पित हो, प्राप्त हो।
टिप्पणी -
[व्याल१= वि+आ+अल ('अलम्' कर देनेवाला, समाप्त कर देनेवाला तक्मा) वि गद=वि+गद व्यक्तायां वाचि (भ्वादिः)। यावय= यु अमिश्रणे च (अदादिः)। दासीम्= दसु उपक्षये (दिवादिः)। वज्रेण= कष्टापत्त्या। जो स्त्री तक्मा से रहित है, परन्तु शक्ति से दुर्बल हो गई है, वह तक्मा से पुनः आक्रान्त हो जाती है। स्त्रियाँ प्रायः गृह में रहती हैं और शारीरिक परिश्रम नहीं करती अत: वे तक्मा से पराभूत हो जाती हैं। (देखिये मन्त्र ७)।] [१. अथवा, व्याल=सर्पसदृश घातक।]