अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 22/ मन्त्र 9
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - तक्मनाशनः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - तक्मनाशन सूक्त
अ॑न्यक्षे॒त्रे न र॑मसे व॒शी सन्मृ॑डयासि नः। अभू॑दु॒ प्रार्थ॑स्त॒क्मा स ग॑मिष्यति॒ बल्हि॑कान् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न्य॒ऽक्षे॒त्रे । न । र॒म॒से॒ । व॒शी । सन् । मृ॒ड॒य॒सि॒ । न॒: । अभू॑त् । ऊं॒ इति॑ । प्र॒ऽअर्थ॑: । त॒क्मा । स: । ग॒मि॒ष्य॒ति॒ । बल्हि॑कान् ॥२२.९॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्यक्षेत्रे न रमसे वशी सन्मृडयासि नः। अभूदु प्रार्थस्तक्मा स गमिष्यति बल्हिकान् ॥
स्वर रहित पद पाठअन्यऽक्षेत्रे । न । रमसे । वशी । सन् । मृडयसि । न: । अभूत् । ऊं इति । प्रऽअर्थ: । तक्मा । स: । गमिष्यति । बल्हिकान् ॥२२.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 22; मन्त्र » 9
भाषार्थ -
(अन्यक्षेत्रे) अन्य प्रदेश अर्थात् हमारे प्रदेशों से भिन्न महावृष आदि प्रदेशों में (न रमसे) यदि तू रमण नहीं करता, [उनमें यदि तू नहीं रहना चाहता] तो (वशी सन्) हमारे वश में होकर (न:) हमें (मृडयासि) तू सुख प्रदान कर। (तक्मा) तक्मा ज्वर (प्रार्थः) प्रगत-प्रयोजन अर्थात् निष्प्रयोजनवाला१, यहाँ के प्रदेशों से (अभूत्) हो गया है, (स:) वह (गमिष्यति) चला जायगा (बल्हिकान्) बल्हिक प्रदेशों को।
टिप्पणी -
[महावृष और बल्हिक प्रदेशों से भिन्न क्षेत्रों में तक्मा नहीं होता, अतः इन भिन्न क्षेत्रों में वह रमण नहीं कर पाता, अत: इन प्रदेशों के लोग सुखी रहते हैं। इन प्रदेशों में तक्मा का निवास निष्प्रयोजन हो गया है। इसलिए वह इन प्रदेशों को त्याग कर बल्हिक प्रदेशों को चला जाएगा, जहाँ कि उसे मौका मिल सके निज वृद्धि का। वैदिक वर्णन बहुधा कवियों की शैली में हुए हैं, अत: अचेतन तक्मा को चेतन कल्पित कर उसमें चेतन धर्मों और कृत्यों का आरोप किया है। यथा "चेतनावद हि स्तुतयो भवन्ति" "अचेतनान्यप्येवं स्तूयन्ते यथाक्षप्रभृतीन्योषधिपर्यन्तानि" (निरुक्त ७.२.६, ७.२.७ प्रकरण)।] [१. इन प्रदेशों में वह निवासियों के वश में रहता है, परवश होकर रहता है, निज प्रभाव-प्रदर्शन नहीं कर पाता। उसका रहना अब निष्प्रयोजन हो गया है, अत: वह बल्हिक आदि प्रदेशों में चला जाएगा, यह निश्चित है।]