अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 25/ मन्त्र 7
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - योनिः, गर्भः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - गर्भाधान सूक्त
गर्भो॑ अ॒स्योष॑धीनां॒ गर्भो॒ वन॒स्पती॑नाम्। गर्भो॒ विश्व॑स्य भू॒तस्य॒ सो अ॑ग्ने॒ गर्भ॒मेह धाः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठगर्भ॑: । अ॒सि॒ । ओष॑धीनाम् । गर्भ॑: । वन॒स्पती॑नाम् । गर्भ॑: । विश्व॑स्य । भू॒तस्य॑ । स: । अ॒ग्ने॒ । गर्भ॑म् । आ । इ॒ह ।धा॒: ॥२५.७॥
स्वर रहित मन्त्र
गर्भो अस्योषधीनां गर्भो वनस्पतीनाम्। गर्भो विश्वस्य भूतस्य सो अग्ने गर्भमेह धाः ॥
स्वर रहित पद पाठगर्भ: । असि । ओषधीनाम् । गर्भ: । वनस्पतीनाम् । गर्भ: । विश्वस्य । भूतस्य । स: । अग्ने । गर्भम् । आ । इह ।धा: ॥२५.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 25; मन्त्र » 7
भाषार्थ -
(ओषधीनाम्) ओषधियों में ( गर्भः) गर्भ-धारणकर्ता असि) तू है, (वनस्पतीनाम् ) वनस्पतियों में ( गर्भ:) गर्भ-धारणकर्त्ता [तू है]। (विश्वस्य भूतस्य) सब भूत-भौतिक, या सब सत्तावान् जगत् में ( गर्भ ) गर्भ-धारण-कर्ता [तू है], (स: अग्ने) वह तू हे अग्नि! (इह) इस पत्नी में ( गर्भम् ) गर्भ (आ धाः) आधान कर।
टिप्पणी -
[समग्र जगत् में जो उत्पत्तियाँ हो रही हैं उनका कारण अग्नि है। अग्नि की इच्छा हो उत्पत्तियों का बीज है। उससे पति प्रार्थना करता है कि इस मेरी पत्नी में भी गर्भधारण करने की इच्छा कर। अग्नि है परमेश्वर, यथा "तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः। तदेव शुक्र तद् ब्रह्म ता: आपः स प्रजापतिः” (यजुः० ३२।१)। परमेश्वरीय इच्छा से ही सब उत्पत्तियां हो रही है।]