अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 25/ मन्त्र 8
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - योनिः, गर्भः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - गर्भाधान सूक्त
अधि॑ स्कन्द वी॒रय॑स्व॒ गर्भ॒मा धे॑हि॒ योन्या॑म्। वृषा॑सि वृष्ण्यावन्प्र॒जायै॒ त्वा न॑यामसि ॥
स्वर सहित पद पाठअधि॑ । स्क॒न्द॒ । वी॒रय॑स्व । गर्भ॑म् । आ । धे॒हि॒ । योन्या॑म् । वृषा॑ । अ॒सि॒ । वृ॒ष्ण्य॒ऽव॒न् । प्र॒ऽजायै॑ । त्वा॒ । आ । न॒या॒म॒सि॒ ॥२५.८॥
स्वर रहित मन्त्र
अधि स्कन्द वीरयस्व गर्भमा धेहि योन्याम्। वृषासि वृष्ण्यावन्प्रजायै त्वा नयामसि ॥
स्वर रहित पद पाठअधि । स्कन्द । वीरयस्व । गर्भम् । आ । धेहि । योन्याम् । वृषा । असि । वृष्ण्यऽवन् । प्रऽजायै । त्वा । आ । नयामसि ॥२५.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 25; मन्त्र » 8
भाषार्थ -
(अधि स्कन्द) अधिक शारीरिक परिश्रम कर (वीरयस्व) वीरता के कर्म किया कर, तदनन्तर (योन्याम्) योनि में (गर्भम् आ धेहि) गर्भाधान कर। (वृष्ण्यावन्) हे वर्षुक वीर्यवाले! (वृषा असि ) तू वीर्यवर्षा करनेवाला है, अत: (प्रजायै) प्रजोत्पत्ति के लिए (त्वा) तुझे (आनयामि) हम (गृहस्थ कर्म में) लाते हैं, [गृहस्थ कर्म की अनुज्ञा देते हैं। स्कन्द= स्कन्दिर् गतिः (भ्वादिः)।]
टिप्पणी -
[शारीरिक परिश्रम करना, वीरता के कर्म करना और वीर्यवान् होना-ये शर्त हैं गृहस्थ कर्म के लिए।]