अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 26/ मन्त्र 11
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - द्विपदा प्राजापत्या बृहती
सूक्तम् - नवशाला सूक्त
इन्द्रो॑ युनक्तु बहु॒धा पयां॑स्य॒स्मिन्य॒ज्ञे सु॒युजः॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑: । यु॒न॒क्तु॒ । ब॒हु॒ऽधा । वी॒र्या᳡णि । अ॒स्मिन् । य॒ज्ञे। सु॒ऽयुज॑: । स्वाहा॑ ॥२६.११॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रो युनक्तु बहुधा पयांस्यस्मिन्यज्ञे सुयुजः स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र: । युनक्तु । बहुऽधा । वीर्याणि । अस्मिन् । यज्ञे। सुऽयुज: । स्वाहा ॥२६.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 26; मन्त्र » 11
भाषार्थ -
(इन्द्रः) सम्राट् (अस्मिन् यज्ञे) इस यज्ञकर्म में (बहुधा) बहुत प्रकार के (वीर्याणि) निज सामर्थ्यों या दानवीरता आदि के कर्मों को (युनक्तु) सम्बद्ध करे, (सुयुजः) और उत्तम योजनाओं को सम्बद्ध करे , ताकि (स्वाहा) स्वाहा शब्दोच्चारणपूर्वक आहुतियां होती रहें ।
टिप्पणी -
[मन्त्र ३ में इन्द्र का वर्णन हो चुका है। वहाँ इन्द्र का अर्थ है परमैश्वर्यवान् परमेश्वर, अतः पुनः इन्द्र पद भिन्नार्थक होना चाहिए। वह है सम्राट्, यथा 'इन्द्रश्च सम्राट (यजु:० ८।३७)। वेदानुसार राजा और सम्राट का सम्बन्ध यज्ञकर्म में दर्शाया है। यथा "यज्ञसंयोगाद् राजा स्तुति लभेत" (निरुक्त ९।२।११; रथ: पद )। राजा द्वारा दान और सह-योग प्राप्त कर यज्ञों की समृद्धि हो जाती है । यज्ञों के प्रसार में सम्राट् और राजा द्वारा दिया दान और सहयोग तथा एतत्सम्बन्धी उत्तम योजनाएँ भी यज्ञाङ्ग हैं, उत्तम योजनाएँ हैं-राज्य द्वारा नियुक्त 'यज्ञाधिकारी' तथा यज्ञसम्बन्धी 'स्थिरनिधि' आदि । सम्राट् और साम्राज्य= संयुक्त राजाओं द्वारा निर्वाचित मुखिया है सम्राट्, यह राजाओं पर भी राज्य करता है "राजसु राजयाते" (अथर्व० ६।५८।१)। साम्राज्य है भिन्न-भिन्न राष्ट्रों की 'संयुक्त राज्य संस्था'।]