अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 26/ मन्त्र 8
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - त्वष्टा
छन्दः - द्विपदा प्राजापत्या बृहती
सूक्तम् - नवशाला सूक्त
त्वष्टा॑ युनक्तु बहु॒धा नु रू॒पा अ॒स्मिन्य॒ज्ञे यु॑नक्तु सु॒युजः॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्वष्टा॑ । यु॒न॒क्तु॒ । ब॒हु॒ऽधा । नु । रू॒पा: । अ॒स्मिन् । य॒ज्ञे । सु॒ऽयुज॑: । स्वाहा॑॥२६.८॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वष्टा युनक्तु बहुधा नु रूपा अस्मिन्यज्ञे युनक्तु सुयुजः स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठत्वष्टा । युनक्तु । बहुऽधा । नु । रूपा: । अस्मिन् । यज्ञे । सुऽयुज: । स्वाहा॥२६.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 26; मन्त्र » 8
भाषार्थ -
(त्वष्टा) पदार्थों का निर्माण करनेवाला कारीगर परमेश्वर (अस्मिन् यज्ञे) इस यज्ञ में (बहुधा) बहुत प्रकार की (रूपा:= रूपाणि) रूप-आकृतियों को (युनक्तु) संयुक्त करे, सम्बद्ध करे।
टिप्पणी -
[त्वष्टा१ =त्वक्षू तनूकरणे (भ्वादिः)। मन्त्र में 'त्वष्टा' पद द्वारा परमेश्वर को 'तक्षा' अर्थात् तरखान के सदृश कारीगर कहा है। तक्षा काष्ठ से नानाविध उपकरणों में नानाविध रूप-आकृतियों का निर्माण करता है। परमेश्वर भी प्रकृतिरूपी वन के, एकदेशीरूपी वृक्ष से ब्रह्माण्ड की नानाविध वस्तुओं की नानाविध रूप-आकृतियों का निर्माण करता है। यथा "किं स्विद् वनं क उ स वृक्ष आस यतो द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः" (यजु:० १७।२०)। यज्ञ में यज्ञशाला के निर्माण और उसे सजाने के लिए नानाविध योजनाएँ करनी होती हैं, अतः ये रूप-आकृतियाँ तथा योजनाएँ यज्ञाङ्ग हैं। स्वाहा तो मुख्य यज्ञाङ्ग है, स्वाहा के उच्चारणपूर्वक आहुतियाँ देना ही तो यज्ञ है।] [१. त्वक्षतेर्वा स्यात् करोतिकर्मणः (नि० ८।२।१४)। ]