अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 73/ मन्त्र 9
सूक्त - अथर्वा
देवता - घर्मः, अश्विनौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - धर्म सूक्त
जुष्टो॒ दमू॑ना॒ अति॑थिर्दुरो॒ण इ॒मं नो॑ य॒ज्ञमुप॑ याहि वि॒द्वान्। विश्वा॑ अग्ने अभि॒युजो॑ वि॒हत्य॑ शत्रूय॒तामा भ॑रा॒ भोज॑नानि ॥
स्वर सहित पद पाठजुष्ट॑: । दमू॑ना: । अति॑थि: । दु॒रो॒णे । इ॒मम् । न॒: । य॒ज्ञम् । उप॑ । या॒हि॒ । वि॒द्वान् । विश्वा॑: । अ॒ग्ने॒ । अ॒भि॒ऽयुज॑: । वि॒ऽहत्य॑ । श॒त्रु॒ऽय॒ताम् । आ । भ॒र॒ । भोज॑नानि ॥७७.९॥
स्वर रहित मन्त्र
जुष्टो दमूना अतिथिर्दुरोण इमं नो यज्ञमुप याहि विद्वान्। विश्वा अग्ने अभियुजो विहत्य शत्रूयतामा भरा भोजनानि ॥
स्वर रहित पद पाठजुष्ट: । दमूना: । अतिथि: । दुरोणे । इमम् । न: । यज्ञम् । उप । याहि । विद्वान् । विश्वा: । अग्ने । अभिऽयुज: । विऽहत्य । शत्रुऽयताम् । आ । भर । भोजनानि ॥७७.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 73; मन्त्र » 9
भाषार्थ -
(अग्ने) हे अग्रणी प्रधानमन्त्रि ! (जुष्टः) प्रीत तथा सेवाई (दमूना) शम-दम सम्पन्न मन वाला (अतिथिः) अतिथि (दुरोणे) जैसे गृहस्थी के घर में आता है, वैसे तू (विद्वान्) राज्यव्यवस्था का जानने वाला (नः) हमारे (इमम् यज्ञम्) इस राष्ट्र यज्ञ में (उप याहि) उपस्थित होजा। और (विश्वाः अभियुजः) सब आक्रमणकारी परकीय सेनाओं का (विहत्य) विशेष हनन करके (शत्रूयताम्) हमारे साथ शत्रुता चाहने वालों के (भोजनानि) भोजनों को (आभर = आहर) छीन ले।
टिप्पणी -
[अग्ने = अग्निः अग्रणीर्भवति (निरुक्त ७।४।१४)। मन्त्रवर्णन से स्पष्ट ज्ञात होता है कि अग्नि, यज्ञाग्नि नहीं; अपितु वह राजनीतिज्ञ सर्वाग्रणी व्यक्ति है जो कि शत्रुओं का हनन कर उनके भोजनों को छीनकर उन्हें भूखे मरने देता है। अतः मन्त्र में यज्ञ का अभिप्राय है "राष्ट्रयज्ञ"। अभियुजः= "हमारे संमुख जुटी हुई" परसेनाएं]।