अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 73/ मन्त्र 10
सूक्त - अथर्वा
देवता - घर्मः, अश्विनौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - धर्म सूक्त
अग्ने॒ शर्ध॑ मह॒ते सौभ॑गाय॒ तव॑ द्यु॒म्नान्यु॑त्त॒मानि॑ सन्तु। सं जा॑स्प॒त्यं सु॒यम॒मा कृ॑णुष्व शत्रूय॒ताम॒भि ति॑ष्ठा॒ महां॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । शर्ध॑ । म॒ह॒ते । सौभ॑गाय । तव॑ । द्यु॒म्नानि॑ । उ॒त्ऽत॒मानि॑ । स॒न्तु॒ । सम् । जा॒:ऽप॒त्यम् । सु॒ऽयम॑म् । आ । कृ॒णु॒ष्व॒ । श॒त्रु॒यऽय॒ताम् । अ॒भि । ति॒ष्ठ॒ । महां॑सि ॥७७.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने शर्ध महते सौभगाय तव द्युम्नान्युत्तमानि सन्तु। सं जास्पत्यं सुयममा कृणुष्व शत्रूयतामभि तिष्ठा महांसि ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने । शर्ध । महते । सौभगाय । तव । द्युम्नानि । उत्ऽतमानि । सन्तु । सम् । जा:ऽपत्यम् । सुऽयमम् । आ । कृणुष्व । शत्रुयऽयताम् । अभि । तिष्ठ । महांसि ॥७७.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 73; मन्त्र » 10
भाषार्थ -
(अग्ने) हे अग्रणी ! (महते सौभगाय) हमारे महासौभाग्य के लिये (शर्ध) तू दयार्द्रहृदय हो जा (तव) तेरे (द्युम्नानि) यश (उत्तमानि) समुन्नत (सन्तु) हों। (जास्पत्यम्) पति-पत्नी सम्बन्ध को (सुयमम्) सुनियन्त्रित (आ कृणुष्व) कर (शत्रूयताम्) शत्रुता चाहने वालों के (महांसि) तेजों को (अभितिष्ठ) पदाक्रान्त कर, अभिभूत कर।
टिप्पणी -
[शर्ध= शृधु मृधु उन्दने (भ्वादिः)। द्युम्नम् = द्योततेः "यशो वा अन्नम् वा" (निरुक्त पद ३३; ५।१।५)। जास्पत्यम्= जाया और पति का सम्बन्ध सुयमम् = यज्ञिय वैवाहिक अग्नि द्वारा जाया पति का सम्बन्ध वैधानिक तो हो जाता है, परन्तु यह अग्नि इस सम्बन्ध को "सुयम" अर्थात् सुनियन्त्रित नहीं कर सकती, और न शत्रुओं के तेजों का पराभव कर सकती है। वैवाहिक सम्बन्ध का सुनियन्त्रण तो राष्ट्र की अग्नि [अग्रणी] ही एतत्सम्बन्धी नियमों के निर्माण द्वारा कर सकती है, और राष्ट्राग्नि ही शत्रुओं के तेजों का पराभव कर सकती है। तथा न वैवाहिक अग्नि के साथ दयार्द्रता का ही सम्बन्ध सम्भव है]।