अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 8/ मन्त्र 13
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - सर्वशीर्षामयापाकरणम्
छन्दः - विराडनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मनिवारण सूक्त
याः सी॒मानं॑ विरु॒जन्ति॑ मू॒र्धानं॒ प्रत्य॑र्ष॒णीः। अहिं॑सन्तीरनाम॒या निर्द्र॑वन्तु ब॒हिर्बिल॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठया: । सी॒मान॑म् । वि॒ऽरु॒जन्ति॑ । मू॒र्धान॑म् । प्रति॑ । अ॒र्ष॒णी: । अहिं॑सन्ती: । अ॒ना॒म॒या: । नि: । द्र॒व॒न्तु॒ । ब॒हि: । बिल॑म् ॥१३.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
याः सीमानं विरुजन्ति मूर्धानं प्रत्यर्षणीः। अहिंसन्तीरनामया निर्द्रवन्तु बहिर्बिलम् ॥
स्वर रहित पद पाठया: । सीमानम् । विऽरुजन्ति । मूर्धानम् । प्रति । अर्षणी: । अहिंसन्ती: । अनामया: । नि: । द्रवन्तु । बहि: । बिलम् ॥१३.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 8; मन्त्र » 13
भाषार्थ -
(मूर्धानम् प्रति) सिर की ओर (अर्षणीः) गति करने वाले (याः) जो [आपः] रक्तरूपी जल (सोमानम्) सीमा को (विरुजन्ति) विशेषतया रुग्ण करते हैं, वे (अहिंसन्तीः, अनामयाः) न हिंसा करने वाले, रोग रहित [आपः] रक्तरूपी जल, (बिलम्, बहिः) बलि के छिद्र से बाहर, (निर्द्रवन्तु) द्रवरूप में निकल जांय।
टिप्पणी -
[अर्षणीः = ऋषी गतौ (तुदादिः) + ल्युट् + ङीप्। मन्त्र में "अर्षणीः" में बहुवचन और स्त्रीलिंङ्ग "आप" का सूचक है, और आप पद रक्त-जल का निर्देशक है (अथर्व० १०।२।११) से रक्त-आप मूर्धा की ओर गति करते हुए अपने में विलीन यक्ष्म-क्रिमियों [Germes] को ले जाते हैं, और सिर की सीमा [meninges१] को रुग्ण कर देते हैं। उपचार द्वारा ये क्रिमि मूत्ररूप२ में जब मूत्रमार्ग से बाहर निकल जाते हैं, तब सिर हिंसा रहित और रोगरहित हो जाते हैं। क्रिमियों अर्थात् Germs के लिये देखो (अथर्व० २।३१।५; ३२।१-४ ५।२३।१-१३)] [१. मस्तिष्कावरण। इस के सूजन को maningiris कहते हैं। २.रक्त में के क्रिमि, रक्त से स्रुत हुए मूत्ररूप में, मूत्र मार्ग से बाहर निकल जाते हैं।]