अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 8/ मन्त्र 18
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - सर्वशीर्षामयापाकरणम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मनिवारण सूक्त
या म॒ज्ज्ञो नि॒र्धय॑न्ति॒ परूं॑षि विरु॒जन्ति॑ च। अहिं॑सन्तीरनाम॒या निर्द्र॑वन्तु ब॒हिर्बिल॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठया: । म॒ज्ज्ञ: । नि॒:ऽधय॑न्ति । परूं॑षि । वि॒ऽरु॒जन्ति॑ । च॒ । अहिं॑सन्ती: । अ॒ना॒म॒या: । नि: । द्र॒व॒न्तु॒ । ब॒हि: । बिल॑म् ॥१३.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
या मज्ज्ञो निर्धयन्ति परूंषि विरुजन्ति च। अहिंसन्तीरनामया निर्द्रवन्तु बहिर्बिलम् ॥
स्वर रहित पद पाठया: । मज्ज्ञ: । नि:ऽधयन्ति । परूंषि । विऽरुजन्ति । च । अहिंसन्ती: । अनामया: । नि: । द्रवन्तु । बहि: । बिलम् ॥१३.१८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 8; मन्त्र » 18
भाषार्थ -
(याः) जो [आपः] यक्ष्मान्वित रक्त-जल (मज्जः) मज्जा को (निर्धयन्ति) पी जाते हैं (च) और (परुंषि) जोड़ों को (विरुजन्ति) तोड़ देते हैं वे [उपचार या चिकित्सा द्वारा] (अहिंसन्तीः) न हिंसा करते हुए (अनाशयाः) और रोग रहित हुए [मूत्ररूप में] (विलम् बहिः) वस्ति के छिद्र से बाहर (निर्द्रवन्तु) द्रवरूप में निकल जांय।
टिप्पणी -
[मन्त्र में पृष्ठवंश का वर्णन प्रतीत होता है। पृष्ठवंश सच्छिद्र-अस्थिम-णकों के, जोड़ों द्वारा मालारूप में बना हुआ है, जिन में सुषुम्णा नाड़ी सूत्र में निवास करती है। जोड़ों के जोड़ पर एक-एक गद्दी होती है, और मणकों में मज्जा होती है। मज्जा= Marrow]