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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 16
    ऋषिः - अवत्सार ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - गायत्री, स्वरः - षड्जः
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    अ॒स्य प्र॒त्नामनु॒ द्युत॑ꣳ शु॒क्रं दु॑दुह्रे॒ऽअह्र॑यः। पयः॑ सहस्र॒सामृषि॑म्॥१६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्य। प्र॒त्नाम्। अनु॑। द्युत॑म्। शु॒क्रम्। दु॒दु॒ह्रे॒। अह्र॑यः। पयः॑। स॒ह॒स्र॒सामिति॑ सहस्र॒ऽसाम्। ऋषि॑म् ॥१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्य प्रत्नामनु द्युतँ शुक्रन्दुदुह्रेऽअह्रयः । पयः सहस्रसामृषिम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अस्य। प्रत्नाम्। अनु। द्युतम्। शुक्रम्। दुदुह्रे। अह्रयः। पयः। सहस्रसामिति सहस्रऽसाम्। ऋषिम्॥१६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 16
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    पदार्थ -
    (अह्रयः) सब विद्याओं को व्याप्त कराने वाले विद्वान् लोग (अस्य) इस भौतिक अग्नि की (सहस्रसाम्) असंख्यात कार्यों को देने वा (ऋषिम्) कार्यसिद्धि के प्राप्ति का हेतु (प्रत्नाम्) प्राचीन अनादिस्वरूप से नित्य वर्त्तमान (द्युतम्) कारण में रहने वाली दीप्ति को जानकर (शुक्रम्) शुद्ध कार्यों को सिद्ध करने वाले (पयः) जल को (अनु दुदुह्रे) अच्छे प्रकार पूरण करते हैं अर्थात् अग्नि में हवनादि करके वृष्टि से संसार को पूरण करते हैं॥१६॥

    भावार्थ - मनुष्यों को जैसे गुणसहित अग्नि का कारणरूप वा अनादिपन से नित्यपन जानना योग्य है, वैसे ही जगत् के अन्य पदार्थों का भी कारणरूप से अनादिपन जानना चाहिये। इनको जानकर कार्यों में उपयुक्त करके सब व्यवहारों की सिद्धि करनी चाहिये॥१६॥

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