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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 34
    ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - पथ्या बृहती, स्वरः - मध्यमः
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    क॒दा च॒न स्त॒रीर॑सि॒ नेन्द्र॑ सश्चसि दा॒शुषे॑। उपो॒पेन्नु म॑घव॒न् भूय॒ऽइन्नु ते॒ दानं॑ दे॒वस्य॑ पृच्यते॥३४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क॒दा। च॒न। स्त॒रीः। अ॒सि॒। न। इ॒न्द्र॒। स॒श्च॒सि॒। दा॒शुषे॑। उपो॒पेत्युप॑ऽउप। इत्। नु। म॒घ॒व॒न्निति॑ मघऽवन्। भूयः॑। इत्। नु। ते॒। दान॑म्। दे॒वस्य॑। पृ॒च्य॒ते॒ ॥३४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कदा चन स्तरीरसि नेन्द्र सश्चसि दाशुषे । उपोपेन्नु मघवन्भूय इन्नु ते दानं देवस्य पृच्यते ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    कदा। चन। स्तरीः। असि। न। इन्द्र। सश्चसि। दाशुषे। उपोपेत्युपऽउप। इत्। नु। मघवन्निति मघऽवन्। भूयः। इत्। नु। ते। दानम्। देवस्य। पृच्यते॥३४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 34
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    पदार्थ -
    हे (इन्द्र) सुख देने वाले ईश्वर! जो आप (स्तरीः) सुखों से आच्छादन करने वाले (असि) हैं और (दाशुषे) विद्या आदि दान करने वाले मनुष्य के लिये (कदाचन) कभी (इत्) ज्ञान को (नु) शीघ्र (सश्चसि) प्राप्त (न) नहीं करते तो उस काल में हे (मघवन्) विद्यादि धन वाले जगदीश्वर! (देवस्य) कर्म फल के देने वाले (ते) आपके (दानम्) दिये हुए (इत्) ही ज्ञान को (दाशुषे) विद्यादि देने वाले के लिये (भूयः) फिर (नु) शीघ्र (उपोपपृच्यते) प्राप्त (कदाचन) कभी (न) नहीं होता॥३४॥

    भावार्थ - जो जगदीश्वर कर्म के फल को देने वाला नहीं होता तो कोई भी प्राणी व्यवस्था के साथ किसी कर्म के फल को प्राप्त नहीं हो सकता॥३४॥

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