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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 32
    ऋषिः - सप्तधृतिर्वारुणिर्ऋषिः देवता - आदित्यो देवता छन्दः - निचृत् गायत्री, स्वरः - षड्जः
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    न॒हि तेषा॑म॒मा च॒न नाध्व॑सु वार॒णेषु॑। ईशे॑ रि॒पुर॒घश॑ꣳसः॥३२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न॒हि। तेषा॑म्। अ॒मा। च॒न। न। अध्व॒स्वित्यध्व॑ऽसु। वा॒र॒णेषु॑। ईशे॑। रि॒पुः। अ॒घश॑ꣳस॒ इत्य॒घऽश॑ꣳसः ॥३२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नहि तेषाममा चन नाध्वसु वारणेषु । ईशे रिपुरघशँसः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    नहि। तेषाम्। अमा। चन। न। अध्वस्वित्यध्वऽसु। वारणेषु। ईशे। रिपुः। अघशꣳस इत्यधऽशꣳसः॥३२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 32
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    पदार्थ -
    जो ईश्वर की उपासना करने वाले मनुष्य हैं (तेषाम्) उनके (अमा) गृह (अध्वसु) मार्ग और (वारणेषु) चोर, शत्रु, डाकू, व्याघ्र आदि के निवारण करने वाले संग्रामों में (चन) भी (अघशंसः) पापरूप कर्मों का कथन करने वाला (रिपुः) शत्रु (नहि) नहीं स्थित होता और (न) न उनको क्लेश देने को समर्थ हो सकता, उस ईश्वर और उन धार्मिक विद्वानों के प्राप्त होने को मैं (ईशे) समर्थ होता हूँ॥३२॥

    भावार्थ - जो धर्मात्मा वा सब के उपकार करने वाले मनुष्य हैं, उनको भय कहीं नहीं होता और शत्रुओं से रहित मनुष्य का कोई शत्रु भी नहीं होता॥३२॥

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