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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 47
    ऋषिः - आगस्त्य ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराट् अनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः
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    अक्र॒न् कर्म॑ कर्म॒कृतः॑ स॒ह वा॒चा म॑यो॒भुवा॑। दे॒वेभ्यः॒ कर्म॑ कृ॒त्वास्तं॒ प्रेत॑ सचाभुवः॥४७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अक्र॑न्। कर्म॑। क॒र्म॒कृत॒ इति॑ कर्म॒ऽकृतः॑। स॒ह। वा॒चा। म॒यो॒भुवेति॑ मयः॒ऽभुवा॑। दे॒वभ्यः॑। कर्म॑। कृ॒त्वा। अस्त॑म्। प्र। इ॒त। स॒चा॒भु॒व॒ इति॑ सचाऽभुवः ॥४७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अक्रन्कर्म कर्मकृतः सह वाचा मयोभुवा । देवेभ्यः कर्म कृत्वास्तं प्रेत सचाभुवः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अक्रन्। कर्म। कर्मकृत इति कर्मऽकृतः। सह। वाचा। मयोभुवेति मयःऽभुवा। देवभ्यः। कर्म। कृत्वा। अस्तम्। प्र। इत। सचाभुव इति सचाऽभुवः॥४७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 47
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    पदार्थ -
    जो मनुष्य लोग (मयोभुवा) सत्यप्रिय मङ्गल के कराने वाली (वाचा) वेदवाणी वा अपनी वाणी के (सह) साथ (सचाभुवः) परस्पर संगी होकर (कर्मकृतः) कर्मों को करते हुए (कर्म) अपने अभीष्ट कर्म को (अक्रन्) करते हैं, वे (देवेभ्यः) विद्वान् वा उत्तम-उत्तम गुण वा सुखों के लिये (कर्म) करने योग्य कर्म वा (कृत्वा) अनुष्ठान करके (अस्तम्) पूर्णसुखयुक्त घर को (प्रेत) प्राप्त होते हैं॥४७॥

    भावार्थ - मनुष्यों को योग्य है कि सर्वथा आलस्य को छोड़कर पुरुषार्थ ही में निरन्तर रह के मूर्खपन को छोड़ कर वेदविद्या से शुद्ध की हुई वाणी के साथ सदा वर्तें और परस्पर प्रीति करके एक-दूसरे का सहाय करें। जो इस प्रकार के मनुष्य हैं, वे ही अच्छे-अच्छे सुखयुक्त मोक्ष वा इस लोक के सुखों को प्राप्त होकर आनन्दित होते हैं, अन्य अर्थात् आलसी पुरुष आनन्द को कभी नहीं प्राप्त होते॥४७॥

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