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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 58
    ऋषिः - बन्धुर्ऋषिः देवता - रुद्रो देवता छन्दः - विराट् पङ्क्ति, स्वरः - पञ्चमः
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    अव॑ रु॒द्रम॑दीम॒ह्यव॑ दे॒वं त्र्य॑म्बकम्। यथा॑ नो॒ वस्य॑स॒स्कर॒द् यथा॑ नः॒ श्रेय॑स॒स्कर॒द् यथा॑ नो व्यवसा॒यया॑त्॥५८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अव॑। रु॒द्रम्। अ॒दी॒म॒हि॒। अव॑। दे॒वम्। त्र्य॑म्बक॒मिति॒ त्रिऽअ॑म्बकम्। यथा॑। नः॒। वस्य॑सः। कर॑त्। यथा॑। नः॒। श्रेय॑सः। कर॑त्। यथा॑। नः॒। व्य॒व॒सा॒यया॒दिति॑ विऽअवसा॒यया॑त् ॥५८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अव रुद्रमदीमह्यव देवन्त्र्यम्बकम् । यथा नो वस्यसस्करद्यद्यथा नः श्रेयसस्करद्यद्यथा नो व्यवसाययात् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अव। रुद्रम्। अदीमहि। अव। देवम्। त्र्यम्बकमिति त्रिऽअम्बकम्। यथा। नः। वस्यसः। करत्। यथा। नः। श्रेयसः। करत्। यथा। नः। व्यवसाययादिति विऽअवसाययात्॥५८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 58
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    पदार्थ -
    हम लोग (त्र्यम्बकम्) तीनों काल में एकरस ज्ञानयुक्त (देवम्) देने वा (रुद्रम्) दुष्टों को रुलाने वाले जगदीश्वर की उपासना करके सब दुःखों को (अवादीमहि) अच्छे प्रकार नष्ट करें (यथा) जैसे परमेश्वर (नः) हम लोगों को (वस्यसः) उत्तम-उत्तम वास करने वाले (अवाकरत्) अच्छे प्रकार करे (यथा) जैसे (नः) हम लोगों को (श्रेयसः) अत्यन्त श्रेष्ठ (करत्) करे (यथा) जैसे (नः) हम लोगों को (व्यवसाययात्) निवास कराने वा उत्तम गुणयुक्त तथा सत्यपन से निश्चय देने वाले परमेश्वर ही की प्रार्थना करें॥५८॥

    भावार्थ - कोई भी मनुष्य ईश्वर की उपासना वा प्रार्थना के विना सब दुःखों के अन्त को नहीं प्राप्त हो सकता, क्योंकि वही परमेश्वर सब सुखपूर्वक निवास वा उत्तम-उत्तम सत्य निश्चयों को कराता है। इससे जैसी उसकी आज्ञा है, उसका पालन वैसा ही सब मनुष्यों को करना योग्य है॥५८॥

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