यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 11
ऋषिः - गोतम ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृत् गायत्री,
स्वरः - षड्जः
6
उ॒प॒प्र॒यन्तो॑ऽअध्व॒रं मन्त्रं॑ वोचेमा॒ग्नये॑। आ॒रेऽअ॒स्मे च॑ शृण्व॒ते॥११॥
स्वर सहित पद पाठउ॒प॒प्र॒यन्त॒ इत्यु॑पऽप्र॒यन्तः॑। अ॒ध्व॒रम्। मन्त्र॑म्। वो॒चे॒म॒। अ॒ग्नये॑। आ॒रे। अ॒स्मेऽइत्य॒स्मे। च॒ शृ॒ण्व॒ते ॥११॥
स्वर रहित मन्त्र
उपप्रयन्तोऽअध्वरं मन्त्रँवोचेमाग्नये । आरेऽअस्मे च शृण्वते ॥
स्वर रहित पद पाठ
उपप्रयन्त इत्युपऽप्रयन्तः। अध्वरम्। मन्त्रम्। वोचेम। अग्नये। आरे। अस्मेऽइत्यस्मे। च शृण्वते॥११॥
विषय - अब अगले मन्त्र में ईश्वर ने अपने स्वरूप का प्रकाश किया है॥
पदार्थ -
(अध्वरम्) क्रियामय यज्ञ को (उपप्रयन्तः) अच्छे प्रकार जानते हुए हम लोग (अस्मे) जो हम लोगों के (आरे) दूर वा (च) निकट में (शृण्वते) यथार्थ सत्यासत्य को सुनने वाले (अग्नये) विज्ञानस्वरूप अन्तर्यामी जगदीश्वर है, इसी के लिये (मन्त्रम्) ज्ञान को प्राप्त कराने वाले मन्त्रों को (वोचेम) नित्य उच्चारण वा विचार करें॥११॥
भावार्थ - मनुष्यों को वेदमन्त्रों के साथ ईश्वर की स्तुति वा यज्ञ के अनुष्ठान को करके जो ईश्वर भीतर-बाहर सब जगह व्याप्त होकर सब व्यवहारों को सुनता वा जानता हुआ वर्त्तमान है, इस कारण उससे भय मानकर अधर्म करने की इच्छा भी न करनी चाहिये। जब मनुष्य परमात्मा को जानता है, तब समीपस्थ और जब नहीं जानता तब दूरस्थ है, ऐसा निश्चय जानना चाहिये॥११॥
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