यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 38
ऋषिः - वैखानस ऋषिः
देवता - राजादयो गृहपतयो देवताः
छन्दः - भूरिक् त्रिपाद गायत्री,स्वराट आर्ची अनुष्टुप्,भूरिक् आर्ची अनुष्टुप्,
स्वरः - गान्धारः, षड्जः
9
अग्ने॒ पव॑स्व॒ स्वपा॑ऽअ॒स्मे वर्चः॑ सु॒वीर्य॑म्। दध॑द्र॒यिं मयि॒ पोष॑म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽस्य॒ग्नये॑ त्वा॒ वर्च॑सऽए॒ष ते॒ योनि॑र॒ग्नये॑ त्वा॒ वर्च॑से। अग्ने॑ वर्चस्वि॒न् वर्च॑स्वाँ॒स्त्वं दे॒वेष्वसि॒ वर्च॑स्वान॒हं म॑नु॒ष्येषु भूयासम्॥३८॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑। पव॑स्व। स्वपा॒ इति॑ सु॒ऽअपाः॑। अ॒स्मेऽइत्य॒स्मे। वर्चः॑ सु॒वीर्य्य॒मिति॑ सु॒ऽवीर्य्य॑म्। दध॑त्। र॒यिम्। मयि॑। पोष॑म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। अ॒ग्नये॑। त्वा॒। वर्च॑से। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। अ॒ग्नये॑। त्वा॒। वर्च॑से। अग्ने॑। व॒र्च॒स्वि॒न्। वर्च॑स्वान्। त्वम्। दे॒वेषु॑। असि॑। वर्च॑स्वान्। अ॒हम्। म॒नु॒ष्ये᳖षु। भू॒या॒स॒म् ॥३८॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने पवस्व स्वपा ऽअस्मे वर्चः सुवीर्यम् । दधद्रयिम्मयि पोषम् उपयामगृहीतोस्यग्नये त्वा वर्चसेऽएष ते योनिरग्नये त्वा वर्चसे । अग्ने वर्चस्विन्वर्चस्वाँस्त्वन्देवेष्वसि वर्चस्वानहम्मनुष्येषु भूयासम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्ने। पवस्व। स्वपा इति सुऽअपाः। अस्मेऽइत्यस्मे। वर्चः सुवीर्य्यमिति सुऽवीर्य्यम्। दधत्। रयिम्। मयि। पोषम्। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। अग्नये। त्वा। वर्चसे। एषः। ते। योनिः। अग्नये। त्वा। वर्चसे। अग्ने। वर्चस्विन्। वर्चस्वान्। त्वम्। देवेषु। असि। वर्चस्वान्। अहम्। मनुष्येषु। भूयासम्॥३८॥
विषय - फिर भी प्रकारान्तर से पूर्वोक्त विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (स्वपाः) उत्तम-उत्तम काम तथा (वर्चस्विन्) सुन्दर प्रकार से वेदाध्ययन करने वाले (अग्ने) सभापति! आप (अस्मे) हम लोगों के लिये (सुवीर्य्यम्) उत्तम पराक्रम (वर्चः) वेद का पढ़ना तथा (मयि) निरन्तर रक्षा करने योग्य अस्मदादि जन में (रयिम्) धन और (पोषम्) पुष्टि को (दधत्) धारण करते हुए (पवस्व) पवित्र हूजिए। (उपयामगृहीतः) राज्य-व्यवहार के लिये हम ने स्वीकार किये हुए (असि) आप हैं, (त्वा) तुझको (वर्चसे) उत्तम तेज, बल, पराक्रम के लिये (अग्नये) वा विज्ञानयुक्त परमेश्वर की प्राप्ति के लिये हम स्वीकार करते हैं। (ते) तुम्हारी (एषः) यह (योनिः) राजभूमि निवासस्थान है, (त्वा) तुझ को (वर्चसे) हम लोग अपने विद्या प्रकाश सब प्रकार सुख के लिये बार-बार प्रत्येक कामों में प्रार्थना करते हैं। हे तेजधारी सभापतेराजन्! जैसे (त्वम्) आप (देवेषु) उत्तम-उत्तम विद्वानों में (वर्चस्वान्) प्रशंसनीय विद्याध्ययन करने वाले (असि) हैं, वैसे (अहम्) मैं (मनुष्येषु) विचारशील पुरुषों में आप के सदृश (भूयासम्) होऊं॥३८॥
भावार्थ - राजा आदि सभ्य जनों को उचित है कि सब मनुष्यों में उत्तम-उत्तम विद्या और अच्छे-अच्छे गुणों को बढ़ाते रहें, जिससे समस्त लोग श्रेष्ठ गुण और कर्म्म प्रचार करने में उत्तम होवें॥३८॥
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