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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 8
    ऋषिः - भरद्वाज ऋषिः देवता - विश्वेदेवा गृहपतयो देवताः छन्दः - प्राजापत्या गायत्री,निचृत् आर्षी बृहती, स्वरः - मध्यमः
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    उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि सु॒शर्मा॑सि सुप्रतिष्ठा॒नो बृ॒हदु॑क्षाय॒ नमः॑। विश्वे॑भ्यस्त्वा दे॒वेभ्य॑ऽए॒ष ते॒ योनि॒र्विश्वे॑भ्यस्त्वा दे॒वेभ्यः॑॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒प॒या॒मगृ॑ही॒त इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। सु॒शर्म्मेति॑ सु॒ऽशर्म्मा॑। अ॒सि॒। सु॒प्र॒ति॒ष्ठा॒नः। सु॒प्र॒ति॒स्था॒न इति॑ सुऽप्रतिस्था॒नः। बृ॒हदु॑क्षा॒येति॑ बृ॒हत्ऽउ॑क्षाय। नमः॑। विश्वे॑भ्यः। त्वा॒। दे॒वेभ्यः॑। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। विश्वे॑भ्यः। त्वा॒। दे॒वेभ्यः॑ ॥८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपयामगृहीतोसि सुशर्मासि सुप्रतिष्ठानो बृहदुक्षाय नमः । विश्वेभ्यस्त्वा देवेभ्यऽएष ते योनिर्विश्वेभ्यस्त्वा देवेभ्यः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। सुशर्म्मेति सुऽशर्म्मा। असि। सुप्रतिष्ठानः। सुप्रतिस्थान इति सुऽप्रतिस्थानः। बृहदुक्षायेति बृहत्ऽउक्षाय। नमः। विश्वेभ्यः। त्वा। देवेभ्यः। एषः। ते। योनिः। विश्वेभ्यः। त्वा। देवेभ्यः॥८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 8
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    पदार्थ -
    हे पते! जैसे मैंने आप को (उपयामगृहीतः) नियम-उपनियमों से ग्रहण किया (असि) है और (सुप्रतिष्ठानः) अच्छी प्रतिष्ठा और (सुशर्मा) अच्छे घर वाले (असि) हो, उन (बृहदुक्षाय) अत्यन्त वीर्य देने वाले आप को (नमः) अच्छे प्रकार संस्कार किया हुआ, चित्त को प्रसन्न करने वाला अन्न उचित समय पर देती हूं, जिस आप का (एषः) यह (योनिः) सुखदायक महल है, (त्वा) उस आप को (विश्वेभ्यः) सब (देवेभ्यः) दिव्य सुखों के लिये सेवन करती हूं और (त्वा) आप को (विश्वेभ्यः) समस्त (देवेभ्यः) विद्वानों के लिये नियुक्त करती हूं, वैसे आप मुझ को कीजिये॥८॥

    भावार्थ - जिस गृहाश्रम भोगने की इच्छा रखने वाले पुरुष का सब ऋतुओं में सुख देने वाला घर हो और आप वीर्यवान् हो, उसी को स्त्री पतिभाव से स्वीकार करे और उस के लिये यथोचित समय पर सुख देवे तथा आप उस पति से उचित समय में दिव्य सुख भोगे और वे स्त्री-पुरुष दोनों विद्वानों का सत्सङ्ग किया करें॥८॥

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