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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 10
    ऋषिः - भरद्वाज ऋषिः देवता - गृहपतयो देवताः छन्दः - विराट ब्राह्मी बृहती, स्वरः - मध्यमः
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    अग्ना३इ पत्नी॑वन्त्स॒जूर्दे॒वेन॒ त्वष्ट्रा॒ सोमं॑ पिब॒ स्वाहा॑। प्र॒जाप॑ति॒र्वृषा॑सि रेतो॒धा रेतो॒ मयि॑ धेहि प्र॒जाप॑तेस्ते॒ वृष्णो॑ रेतो॒धसो॑ रेतो॒धाम॑शीय॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्नाऽ२इ। पत्नी॑व॒न्निति॒ पत्नी॑ऽवन्। स॒जूरिति॑ स॒ऽजूः। दे॒वेन॑। त्वष्ट्रा॑। सोम॑म्। पि॒ब॒। स्वाहा॑। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। वृषा॑। अ॒सि॒। रे॒तो॒धा इति॑ रेतःऽधः। रेतः॑। मयि॑। धे॒हि॒। प्र॒जाप॑ते॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तेः। ते॒। वृष्णः॑। रे॒तो॒धस॒ इति॑ रेतः॒ऽधसः॑। रे॒तो॒धामिति॑ रे॒तःऽधाम्। अ॒शी॒य॒ ॥१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ना३इ पत्नीवन्त्सजूर्देवेन त्वष्ट्रा सोमम्पिब स्वाहा । प्रजापतिर्वृषासि रेतोधा रेतो मयि धेहि प्रजापतेस्त वृष्णो रेतोधसो रेतोधामशीय ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नाऽ२इ। पत्नीवन्निति पत्नीऽवन्। सजूरिति सऽजूः। देवेन। त्वष्ट्रा। सोमम्। पिब। स्वाहा। प्रजापतिरिति प्रजाऽपतिः। वृषा। असि। रेतोधा इति रेतःऽधः। रेतः। मयि। धेहि। प्रजापतेरिति प्रजाऽपतेः। ते। वृष्णः। रेतोधस इति रेतःऽधसः। रेतोधामिति रेतःऽधाम्। अशीय॥१०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 10
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    पदार्थ -
    हे (अग्ने) समस्त सुख पहुंचाने वाले स्वामिन्! (सजूः) समान प्रीति करने वाले आप मेरे (देवेन) दिव्य सुख देने वाले (त्वष्ट्रा) समस्त दुःख विनाश करने वाले गुण के साथ (स्वाहा) सत्यवाणीयुक्त क्रिया से (सोमम्) सोमवल्ली आदि औषधियों के विशेष आसव को (पिब) पीओ। हे (पत्नीवन्) प्रशंसनीय यज्ञसम्बधिनी स्त्री को ग्रहण करने (वृषा) वीर्य्य सींचने (रेतोधाः) वीर्य्य धारण करने (प्रजापतिः) और सन्तानादि के पालने वाले! जो आप (असि) हैं, वह (मयि) मुझ विवाहित स्त्री में (रेतः) वीर्य्य को (धेहि) धारण कीजिये। हे स्वामिन्! मैं (वृष्णः) वीर्य्य सीचने (रेतोधसः) पराक्रम धारण करने (प्रजापतेः) सन्तान आदि की रक्षा करने वाले (ते) आपके संग से (रेतोधाम्) वीर्य्यवान् अति पराक्रमयुक्त पुत्र को (अशीय) प्राप्त होऊं॥१०॥

    भावार्थ - इस संसार में मनुष्यजन्म को पाकर स्त्री और पुरुष ब्रह्मचर्य्य, उत्तम विद्या, अच्छे गुण और पराक्रमयुक्त होकर विवाह करें। विवाह की मर्यादा ही से सन्तानों की उत्पत्ति और रतिक्रीड़ा से उत्पन्न हुए सुख को प्राप्त होकर नित्य आनन्द में रहें। विना विवाह के स्त्री-पुरुष वा पुरुष-स्त्री के समागम की इच्छा मन से भी न करें। जिससे मनुष्यशक्ति की बढ़ती होवे, इससे गृहाश्रम का आरम्भ स्त्री-पुरुष करें॥१०॥

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