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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 44
    ऋषिः - शास ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - निचृत् अनुष्टुप्,स्वराट आर्षी गायत्री स्वरः - गान्धारः, षड्जः
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    वि न॑ऽइन्द्र॒ मृधो॑ जहि नी॒चा य॑च्छ पृतन्य॒तः। योऽअ॒स्माँ२ऽअ॑भि॒दास॒त्यध॑रं गमया॒ तमः॑। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा वि॒मृध॑ऽए॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा वि॒मृधे॑॥४४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि। नः॒। इ॒न्द्र॒। मृधः॑। ज॒हि॒। नी॒चा। य॒च्छ॒। पृ॒त॒न्य॒तः। यः। अ॒स्मान्। अ॒भि॒दास॒तीत्य॑भि॒ऽदास॑ति। अध॑रम्। ग॒म॒य॒। तमः॑। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। वि॒मृध॒ इति॑ वि॒ऽमृधे॑। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। वि॒मृध॒ इति॑ वि॒ऽमृधे॑ ॥४४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि न ऽइन्द्र मृधो जहि नीचा यच्छ पृतन्यतः । यो अस्माँ अभिदासत्यधरङ्गमया तमः । उपयामगृहीतो सीन्द्राय त्वा विमृधे ऽएष ते योनिरिन्द्राय त्वा विमृधे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वि। नः। इन्द्र। मृधः। जहि। नीचा। यच्छ। पृतन्यतः। यः। अस्मान्। अभिदासतीत्यभिऽदासति। अधरम्। गमय। तमः। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। विमृध इति विऽमृधे। एषः। ते। योनिः। इन्द्राय। त्वा। विमृध इति विऽमृधे॥४४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 44
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    पदार्थ -
    हे (इन्द्र) सेनापते! तू (नः) हमारे (पृतन्यतः) हम से युद्ध करने के लिये सेना की इच्छा करनेहारे शत्रुओं को (जहि) मार और उन (नीचा) नीचों को (यच्छ) वश में ला और जो शत्रुजन (अस्मान्) हम लोगों को (अभिदासति) सब प्रकार दुःख देवे उस (विमृधः) दुष्ट को (तमः) जैसे अन्धकार को सूर्य्य नष्ट करता है, वैसे (अधरम्) अधोगति को (गमय) प्राप्त करा, जिस (ते) तेरा (एषः) उक्त कर्म्म करना (योनिः) राज्य का कारण है, इससे तू हम लोगों से (उपयामगृहीतः) सेना आदि सामग्री से ग्रहण किया हुआ (असि) है, इसी से (त्वा) तुझ को (विमृधे) जिस में बड़े-बड़े युद्ध करने वाले शत्रुजन हैं, (इन्द्राय) ऐश्वर्य्य देने वाले उस युद्ध के लिये स्वीकार करते हैं (त्वा) तुझ को (विमृधे) जिस के शत्रु नष्ट हो गये हैं, उस (इन्द्राय) राज्य के लिये प्रेरणा देते हैं अर्थात् अधर्म्म से अपना वर्त्ताव न वर्त्ते॥४४॥

    भावार्थ - जो खोटे काम करने वाला पुरुष अनेक प्रकार से अपने बल को उन्नति देकर सब को दुःख देना चाहे, उस को राजा सब प्रकार से दण्ड दे। यदि फिर भी वह अपनी अत्यन्त खोटाइयों को न छोड़े तो उसको मार डाले अथवा नगर से इसको दूर निकाल बन्द रक्खे॥४४॥

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