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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 56
    ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः देवता - विश्वेदेवा गृहस्था देवताः छन्दः - आर्षी बृहती स्वरः - मध्यमः
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    प्रो॒ह्यमा॑णः॒ सोम॒ऽआग॑तो॒ वरु॑णऽआ॒स॒न्द्यामास॑न्नो॒ऽग्निराग्नी॑ध्र॒ऽइन्द्रो॑ हवि॒र्द्धानेऽथ॑र्वो- पावह्रि॒यमा॑णः॥५६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रो॒ह्यमा॑णः। प्रो॒ह्यमा॑न॒ इति॑ प्रऽउ॒ह्यमा॑नः। सोमः॑। आग॑त॒ इत्याऽग॑तः। वरु॑णः। आ॒स॒न्द्यामित्या॑ऽस॒न्द्याम्। आस॑न्न॒ इत्याऽस॑न्नः। अ॒ग्निः। आग्नी॑ध्रे। इन्द्रः॑। ह॒वि॒र्द्धान॒ इति॑ हविः॒ऽधाने॑। अथ॑र्वा। उ॒पा॒व॒ह्रि॒यमा॑ण॒ इत्युप॑ऽअवह्रि॒यमा॑णः ॥५६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रोह्यमाणः सोमऽ आगतो वरुणऽआसन्द्यामासन्नोग्निराग्नीध्रेऽइन्द्रो हविर्धानेथर्वापावह्रियमाणो विश्वे देवाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्रोह्यमाणः। प्रोह्यमान इति प्रऽउह्यमानः। सोमः। आगत इत्याऽगतः। वरुणः। आसन्द्यामित्याऽसन्द्याम्। आसन्न इत्याऽसन्नः। अग्निः। आग्नीध्रे। इन्द्रः। हविर्द्धान इति हविःऽधाने। अथर्वा। उपावह्रियमाण इत्युपऽअवह्रियमाणः॥५६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 56
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    पदार्थ -
    हे गृहस्थो! तुम को इस ईश्वर की सृष्टि में (आसन्द्याम्) बैठने की एक अच्छी चौकी आदि स्थान पर (आगत) आया हुआ पुरुष जैसे विराजमान हो, वैसे (प्रोह्यमाणः) तर्क-वितर्क के साथ वादानुवाद से जाना हुआ (सोमः) ऐश्वर्य्य का समूह (वरुणः) सहायकारी पुरुष के समान जल का समूह (आग्नीध्रे) बहुत इन्धनों में (अग्निः) अग्नि (उपावह्रियमाणः) क्रिया की कुशलता से युक्त किये हुए (अथर्वा) प्रशंसा करने योग्य के समान पदार्थ और (हविर्द्धाने) ग्रहण करने योग्य पदार्थों में (इन्द्रः) बिजुली निरन्तर युक्त करनी चाहिये॥५६॥

    भावार्थ - तर्क के विना कोई भी विद्या किसी मनुष्य को नहीं होती और विद्या के विना पदार्थों से उपयोग भी कोई नहीं ले सकता॥५६॥

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