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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 45
    ऋषिः - शास ऋषिः देवता - ईश्वरसभेशौ राजानौ देवते छन्दः - भूरिक् आर्षी त्रिष्टुप्,विराट आर्षी अनुष्टुप्, स्वरः - धैवतः, गान्धारः
    8

    वा॒चस्पतिं॑ वि॒श्वक॑र्माणमू॒तये॑ मनो॒जुवं॒ वाजे॑ऽअ॒द्या हु॑वेम। स नो॒ विश्वा॑नि॒ हव॑नानि जोषद् वि॒श्वश॑म्भू॒रव॑से सा॒धुक॑र्म्मा। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा वि॒श्वक॑र्मणऽए॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा वि॒श्वक॑र्मणे॥४५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वा॒चः। पति॑म्। वि॒श्वक॑र्म्माण॒मिति॑ वि॒श्वऽक॑र्म्माणम्। ऊ॒तये॑। म॒नो॒जुव॒मिति॑ मनः॒ऽजुव॑म्। वाजे॑। अ॒द्य। हु॒वे॒म॒। सः। नः॒। विश्वा॑नि। हव॑नानि। जो॒ष॒त्। वि॒श्वश॑म्भू॒रिति॑ वि॒श्वऽश॑म्भूः। अव॑से। सा॒धुक॒र्म्मेति॑ सा॒धुऽक॑र्म्मा। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। वि॒श्वक॑र्म्मण॒ इति॑ वि॒श्वऽक॑र्म्मणे। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। वि॒श्वक॑र्म्मण॒ इति॑ वि॒श्वऽक॑र्म्मणे ॥४५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वाचस्पतिँविश्वकर्माणमूतये मनोजुवँ वाजे ऽअद्या हुवेम । स नो विश्वानि हवनानि जोषद्विश्वशम्भूरवसे साधुकर्मा । उपयामगृहीतो सीन्द्राय त्वा विश्वकर्मणे ऽएष ते योनिरिन्द्राय त्वा विश्वकर्मणे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वाचः। पतिम्। विश्वकर्म्माणमिति विश्वऽकर्म्माणम्। ऊतये। मनोजुवमिति मनःऽजुवम्। वाजे। अद्य। हुवेम। सः। नः। विश्वानि। हवनानि। जोषत्। विश्वशम्भूरिति विश्वऽशम्भूः। अवसे। साधुकर्म्मेति साधुऽकर्म्मा। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। इन्द्राय। त्वा। विश्वकर्म्मण इति विश्वऽकर्म्मणे। एषः। ते। योनिः। इन्द्राय। त्वा। विश्वकर्म्मण इति विश्वऽकर्म्मणे॥४५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 45
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    पदार्थ -
    हम (अद्य) अब (वाजे) विज्ञान वा युद्ध के निमित्त जिन (वाचः) वेदवाणी के (पतिम्) स्वामी वा रक्षा करने वाले (विश्वकर्म्माणम्) जिन के सब धर्म्मयुक्त कर्म्म हैं, जो (मनोजुवम्) मन चाहती गति का जानने वाला है, उस परमेश्वर वा सभापति को (हुवेम) चाहते हैं सो आप (साधुकर्म्मा) अच्छे-अच्छे कर्म्म करने वाले (विश्वशम्भूः) समस्त सुख को उत्पन्न कराने वाले जगदीश्वर वा सभापति (नः) हमारे (अवसे) प्रेम बढ़ाने के लिये (विश्वानि) (हवनानि) दिये हुए सब प्रार्थनावचनों को (जोषत्) प्रेम से मानें जिन (ते) आपका (एषः) यह उक्त कर्म्म (योनिः) एक प्रेमभाव का कारण है, वे आप (उपयामगृहीतः) यमनियमों से ग्रहण किये (असि) हैं, इससे (विश्वकर्म्मणे) समस्त कामों के उत्पन्न करने तथा (इन्द्राय) ऐश्वर्य्य के लिये (त्वा) आप की प्रार्थना तथा (विश्वकर्म्मणे) समस्त काम की सिद्धि के लिये (इन्द्राय) शिल्पक्रिया कुशलता से उत्तम ऐश्वर्य्य वाले (त्वा) आप का सेवन करते हैं॥४५॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जो परमेश्वर वा न्यायधीश सभापति हमारे किये हुए कामों को जांच कर उन के अनुसार हम को यथायोग्य नियमों में रखता है, जो किसी को दुःख देने वाले छल-कपट काम को नहीं करता, जिस परमेश्वर वा सभापति के सहाय से मनुष्य मोक्ष और व्यवहारसिद्धि को पाकर धर्म्मशील होता है, वही ईश्वर परमार्थसिद्धि वा सभापति व्यवहारसिद्धि के निमित्त हम लोगों को सेवने योग्य है॥४५॥

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