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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 2/ मन्त्र 30
    सूक्त - नारायणः देवता - ब्रह्मप्रकाशनम्, पुरुषः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मप्रकाशन सूक्त

    न वै तं चक्षु॑र्जहाति॒ न प्रा॒णो ज॒रसः॑ पु॒रा। पुरं॒ यो ब्रह्म॑णो॒ वेद॒ यस्याः॒ पुरु॑ष उ॒च्यते॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । वै । तम् । चक्षु॑: । ज॒हा॒ति॒ । न । प्रा॒ण: । ज॒रस॑: । पु॒रा । पुर॑म् । य: । ब्रह्म॑ण: । वेद॑ । यस्या॑: । पुरु॑ष: । उ॒च्यते॑ ॥२.३०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न वै तं चक्षुर्जहाति न प्राणो जरसः पुरा। पुरं यो ब्रह्मणो वेद यस्याः पुरुष उच्यते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । वै । तम् । चक्षु: । जहाति । न । प्राण: । जरस: । पुरा । पुरम् । य: । ब्रह्मण: । वेद । यस्या: । पुरुष: । उच्यते ॥२.३०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 2; मन्त्र » 30

    पदार्थ -
    (तम्) उस [मनुष्य] को (न वै) न कभी (चक्षुः) दृष्टि और (न)(प्राणः) प्राण [जीवनसामर्थ्य] (जरसः पुरा) [पुरुषार्थ के] घटाव से पहिले (जहाति) तजता है, (यः) जो मनुष्य (ब्रह्मणः) ब्रह्म [परमात्मा] की (पुरम्) [उस] पूर्ति को (वेद) जानता है, (यस्याः) जिस [पूर्ति] से वह [परमेश्वर] (पुरुषः) पुरुष [परिपूर्ण] (उच्यते) कहा जाता है ॥३०॥

    भावार्थ - जो मनुष्य पूर्ण परमात्मा को जानता है, उस मनुष्य में दिव्यदृष्टि और आत्मबल सदा बना रहता है, जब तक वह पुरुषार्थ करता रहता है ॥३०॥

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