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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 2/ मन्त्र 33
    सूक्त - नारायणः देवता - ब्रह्मप्रकाशनम्, पुरुषः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मप्रकाशन सूक्त

    प्र॒भ्राज॑मानां॒ हरि॑णीं॒ यश॑सा सं॒परी॑वृताम्। पुरं॑ हिर॒ण्ययीं॒ ब्रह्मा वि॑वे॒शाप॑राजिताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒ऽभ्राज॑मानाम् । हरि॑णीम् । यश॑सा । स॒म्ऽपरि॑वृताम् । पुर॑म् । ह‍ि॒र॒ण्ययी॑म् । ब्रह्म॑ । आ । वि॒वे॒श॒ । अप॑राऽजिताम् ॥२.३३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रभ्राजमानां हरिणीं यशसा संपरीवृताम्। पुरं हिरण्ययीं ब्रह्मा विवेशापराजिताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रऽभ्राजमानाम् । हरिणीम् । यशसा । सम्ऽपरिवृताम् । पुरम् । ह‍िरण्ययीम् । ब्रह्म । आ । विवेश । अपराऽजिताम् ॥२.३३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 2; मन्त्र » 33

    पदार्थ -
    (ब्रह्म) ब्रह्म [परमात्मा] ने (भ्राजमानाम्) बड़ी प्रकाशमान (हरिणीम्) दुःख हरनेवाली (यशसा) यश से (संपरीवृताम्) सर्वथा छायी हुई, (हिरण्ययीम्) अनेक बलोंवाली, (अपराजिताम्) कभी न जीती गई (पुरम्) पूर्ति में (आ) सब ओर से (विवेश) प्रवेश किया है ॥३३॥

    भावार्थ - विज्ञानी पुरुष सर्वथा अक्षय परिपूर्ण परमात्मा की उपासना से सदा आनन्द में मग्न रहते हैं ॥३३॥ इति प्रथमोऽनुवाकः ॥

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