अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 3/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वा
देवता - वरणमणिः, वनस्पतिः, चन्द्रमाः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सपत्नक्षयणवरणमणि सूक्त
अ॒यं मे॑ वर॒णो म॒णिः स॑पत्न॒क्षय॑णो॒ वृषा॑। ते॒ना र॑भस्व॒ त्वं शत्रू॒न्प्र मृ॑णीहि दुरस्य॒तः ॥
स्वर सहित पद पाठअयम् । मे॒ । व॒र॒ण: । म॒णि: । स॒प॒त्न॒ऽक्षय॑ण: । वृषा॑ । तेन॑ । आ । र॒भ॒स्व॒ । त्वम् । शत्रू॑न् । प्र । मृ॒णी॒हि॒ । दु॒र॒स्य॒त: ॥३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं मे वरणो मणिः सपत्नक्षयणो वृषा। तेना रभस्व त्वं शत्रून्प्र मृणीहि दुरस्यतः ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । मे । वरण: । मणि: । सपत्नऽक्षयण: । वृषा । तेन । आ । रभस्व । त्वम् । शत्रून् । प्र । मृणीहि । दुरस्यत: ॥३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
विषय - सब सम्पत्तियों के पाने का उपदेश।
पदार्थ -
(अयम्) यह (मणिः) प्रशंसनीय (वरणः) वरण [स्वीकार करने योग्य वैदिक बोध, अथवा वरना वा वरुण औषध] (मे) मेरे (सपत्नक्षयणः) वैरियों का नाश करनेवाला (वृषा) वीर्यवान् है। [हे प्राणी !] (तेन) उस से (त्वम्) तू (शत्रून्) शत्रुओं को (आ रभस्व) पकड़ ले, और (दुरस्यतः) दुराचारियों को (प्र मृणीहि) मार डाल ॥१॥
भावार्थ - जैसे सद्वैद्य वरण आदि औषध द्वारा शरीर के रोगों का नाश करता है, वैसे ही विद्वान् वेदविद्या द्वारा आत्मिक दोष मिटावे ॥१॥ (वरणः) वरण औषधिविशेष है, उसका वर्णन इस प्रकार है−देखो भावप्रकाश, पूर्णखण्ड, वटादिवर्ग, श्लोक ५६।५७ ॥ वरुण [के नाम] वरण, सेतु, तिक्तशाक, कुमारक हैं। वरना पित्तकारक, मलभेदक, और कफ़, मूत्रकृच्छ्र, पथरी, वात, गुल्म, वात से उत्पन्न रक्तविकार और कृमि को मिटाता है, वह उष्ण, अग्नि को दीपन करनेवाला, कसैला, मधुर, कड़वा, चर्परा, रूखा और हलका होता है ॥१॥
टिप्पणी -
१−(अयम्) प्रसिद्धः (मे) मम (वरणः) अ० ६।८५।१। वृञ् वरणे स्वीकरणे-युच्। स्वीकरणीयः। वेदबोधः। वरुणौषधिर्वा (मणिः) अ० १।२९।१। मण कूजे-इन्। प्रशंसनीयः (सपत्नक्षयणः) शत्रुनाशकः (वृषा) वीर्यवान् (तेन) (आरभस्व) निगृहाण (त्वम्) (शत्रून्) (प्रमृणीहि) सर्वथा मारय (दुरस्यतः) अ० १।२९।२। दुरस्य-शतृ। दुष्टीयतः। अनिष्टं कर्तुमिच्छून् ॥