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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 3/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - वरणमणिः, वनस्पतिः, चन्द्रमाः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - सपत्नक्षयणवरणमणि सूक्त

    प्रैणा॑ञ्छृणीहि॒ प्र मृ॒णा र॑भस्व म॒णिस्ते॑ अस्तु पुरए॒ता पु॒रस्ता॑त्। अवा॑रयन्त वर॒णेन॑ दे॒वा अ॑भ्याचा॒रमसु॑राणां॒ श्वः श्वः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । ए॒ना॒न् । शृ॒णी॒हि॒ । प्र । मृ॒ण॒ । आ । र॒भ॒स्व॒ । म॒णि: । ते॒ । अ॒स्तु॒ । पु॒र॒:ऽए॒ता । पु॒रस्ता॑त् । अवा॑रयन्त । व॒र॒णेन॑ । दे॒वा: । अ॒भि॒ऽआ॒चा॒रम् । असु॑राणाम् । श्व:ऽश्व॑: ॥३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रैणाञ्छृणीहि प्र मृणा रभस्व मणिस्ते अस्तु पुरएता पुरस्तात्। अवारयन्त वरणेन देवा अभ्याचारमसुराणां श्वः श्वः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । एनान् । शृणीहि । प्र । मृण । आ । रभस्व । मणि: । ते । अस्तु । पुर:ऽएता । पुरस्तात् । अवारयन्त । वरणेन । देवा: । अभिऽआचारम् । असुराणाम् । श्व:ऽश्व: ॥३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 3; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (एनान्) इनको (प्रशृणीहि) कुचल डाल, (प्रमृण) मार डाल, (आ रभस्व) पकड़ ले, (मणिः) प्रशंसनीय [वैदिक बोध] (ते) तेरा (पुर एता) अगुआ (पुरस्तात्) सामने (अस्तु) होवे। (देवाः) देवताओं [विजयी लोगों] ने (वरणेन) वरण [श्रेष्ठ वैदिक बोध वा वरना औषध] से (असुराणाम्) सुरविरोधी [दुष्टों] के (अभ्याचारम्) विरुद्ध आचरण को (श्वः श्वः) एक आगामी कल से दूसरी कल को (अर्थात् पहिले से ही) (अवारयन्त) रोका था ॥२॥

    भावार्थ - जैसे दूरदर्शी पूर्वज महात्माओं ने उत्तम ज्ञानों और उत्तम औषधों द्वारा आत्मिक और शारीरिक रोग मिटाये हैं, वैसे ही सब मनुष्य उत्तम गुणों और उत्तम ओषधियों के सेवन से उन्नति करें ॥२॥

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