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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 4/ मन्त्र 3
    सूक्त - गरुत्मान् देवता - तक्षकः छन्दः - पथ्याबृहती सूक्तम् - सर्पविषदूरीकरण सूक्त

    अव॑ श्वेत प॒दा ज॑हि॒ पूर्वे॑ण॒ चाप॑रेण च। उ॑दप्लु॒तमि॑व॒ दार्वही॑नामर॒सं वि॒षं वारु॒ग्रम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अव॑ । श्वे॒त॒ । प॒दा । ज॒हि॒ । पूर्वे॑ण । च॒ । अप॑रेण । च॒ । उ॒दप्लु॒तम्ऽइ॑व । दारु॑ । अही॑नाम् । अ॒र॒सम् । वि॒षम् । वा: । उ॒ग्रम् ॥४.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अव श्वेत पदा जहि पूर्वेण चापरेण च। उदप्लुतमिव दार्वहीनामरसं विषं वारुग्रम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अव । श्वेत । पदा । जहि । पूर्वेण । च । अपरेण । च । उदप्लुतम्ऽइव । दारु । अहीनाम् । अरसम् । विषम् । वा: । उग्रम् ॥४.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 4; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (श्वेत) हे प्रवृद्ध [मनुष्य !] तू (पूर्वेण) अगले (च च) और (अपरेण) पिछले (पदा) पाद [पैर की चोट] से (अव जहि) मार डाल। (उदप्लुतम्) जल में बही हुई (दारु इव) लकड़ी के समान (अहीनाम्) सर्पों का (उग्रम्) क्रूर (वाः) जल [अर्थात्] (विषम्) विष (अरसम्) नीरस होवे ॥३॥

    भावार्थ - राजा के प्रबन्ध से दुष्ट लोग ऐसे निर्बल हो जावें, जैसे उत्तम वैद्य के प्रयत्न से विष निकम्मा हो जाता है, जैसे लकड़ी जल में बहती-बहती गलकर सारहीन हो जाती है ॥३॥

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