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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 4/ मन्त्र 12
    सूक्त - गरुत्मान् देवता - तक्षकः छन्दः - भुरिग्गायत्री सूक्तम् - सर्पविषदूरीकरण सूक्त

    न॒ष्टास॑वो न॒ष्टवि॑षा ह॒ता इ॑न्द्रेण व॒ज्रिणा॑। ज॒घानेन्द्रो॑ जघ्नि॒मा व॒यम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न॒ष्टऽअ॑सव: । न॒ष्टऽवि॑षा: । ह॒ता: । इन्द्रे॑ण । व॒ज्रिणा॑ । ज॒घान॑ । इन्द्र॑: । ज॒घ्नि॒म । व॒यम् ॥४.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नष्टासवो नष्टविषा हता इन्द्रेण वज्रिणा। जघानेन्द्रो जघ्निमा वयम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नष्टऽअसव: । नष्टऽविषा: । हता: । इन्द्रेण । वज्रिणा । जघान । इन्द्र: । जघ्निम । वयम् ॥४.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 4; मन्त्र » 12

    पदार्थ -
    (वज्रिणा) वज्रधारी (इन्द्रेण) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले मनुष्य] करके (हताः) मारे गये [साँप] (नष्टासवः) प्राणों से नष्ट और (नष्टविषाः) विष से नष्ट [होवें]। (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष] ने [साँपों को] (जघान) मारा था, और (वयम्) हम ने (जघ्निम) मारा था ॥१२॥

    भावार्थ - दुष्टों के मारने में पूर्वजों के समान सब लोग शूर का साथ देवें ॥१२॥

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