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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 6/ मन्त्र 20
    सूक्त - बृहस्पतिः देवता - फालमणिः, वनस्पतिः छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - मणि बन्धन सूक्त

    अथ॑र्वाणो अबध्नताथर्व॒णा अ॑बध्नत। तैर्मे॒दिनो॒ अङ्गि॑रसो॒ दस्यू॑नां बिभिदुः॒ पुर॒स्तेन॒ त्वं द्वि॑ष॒तो ज॑हि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अथ॑र्वाण: । अ॒ब॒ध्न॒त॒ । आ॒थ॒र्व॒णा: । अ॒ब॒ध्न॒त॒ । तै: । मे॒दिन॑: । अङ्गि॑रस: । दस्यू॑नाम् । बि॒भि॒दु॒: । पुर॑: । तेन॑ । त्वम् । द्वि॒ष॒त: । ज॒हि॒ ॥६.२०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अथर्वाणो अबध्नताथर्वणा अबध्नत। तैर्मेदिनो अङ्गिरसो दस्यूनां बिभिदुः पुरस्तेन त्वं द्विषतो जहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अथर्वाण: । अबध्नत । आथर्वणा: । अबध्नत । तै: । मेदिन: । अङ्गिरस: । दस्यूनाम् । बिभिदु: । पुर: । तेन । त्वम् । द्विषत: । जहि ॥६.२०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 6; मन्त्र » 20

    पदार्थ -
    (अथर्वाणः) निश्चल स्वभाववाले [ऋषियों] ने [वैदिक नियम] (अबध्नत) बाँधा [माना] है, (आथर्वणाः) निश्चल परमात्मा के जाननेवाले [विवेकियों] ने [उसे] (अबध्नत) बाँधा है। (तैः) उन [विवेकियों] के साथ (मेदिनः) स्नेही वा बुद्धिमान् (अङ्गिरसः) ऋषियों ने (दस्यूनाम्) डाकुओं की (पुरः) नगरियों को (बिभिदुः) तोड़ा था, (तेन) उस [वैदिक नियम] से (त्वम्) तू (द्विषतः) वैरियों को (जहि) मार ॥२०॥

    भावार्थ - जैसे ईश्वरनियम पर चल कर विद्वानों की सहायता से दूसरे विद्वानों ने संसार में जीत पाई है, उसी प्रकार सब मनुष्य परस्पर सहायक होकर विघ्नों का नाश करें ॥२०॥

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