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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 6/ मन्त्र 22
    सूक्त - बृहस्पतिः देवता - फालमणिः, वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - मणि बन्धन सूक्त

    यमब॑ध्ना॒द्बृह॒स्पति॑र्दे॒वेभ्यो॒ असु॑रक्षितिम्। स मा॒यं म॒णिराग॑म॒द्रसे॑न स॒ह वर्च॑सा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । अब॑ध्नात् । बृह॒स्पति॑: । दे॒वेभ्य॑: । असु॑रऽक्षितिम् । स: । मा॒ । अ॒यम् । म॒णि: । आ । अ॒ग॒म॒त् । रसे॑न । स॒ह । वर्च॑सा ॥६.२२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यमबध्नाद्बृहस्पतिर्देवेभ्यो असुरक्षितिम्। स मायं मणिरागमद्रसेन सह वर्चसा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । अबध्नात् । बृहस्पति: । देवेभ्य: । असुरऽक्षितिम् । स: । मा । अयम् । मणि: । आ । अगमत् । रसेन । सह । वर्चसा ॥६.२२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 6; मन्त्र » 22

    पदार्थ -
    (यम्) जिस (असुरक्षितिम्) असुरनाशक [वैदिक नियम] को (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़े ब्रह्माण्डों के स्वामी परमेश्वर] ने (देवेभ्यः) विजयी लोगों के लिये (अबध्नात्) बाँधा है। (सः अयम्) वही (मणिः) मणि [प्रशंसनीय वैदिक नियम] (मा) मुझे (रसेन) पराक्रम और (वर्चसा सह) प्रताप के साथ (आ अगमत्) प्राप्त हुआ ॥२२॥

    भावार्थ - परमात्मा के बाँधे नियम पर चल कर सब मनुष्य बल और कीर्ति बढ़ावें ॥२२॥

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