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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 7/ मन्त्र 10
    सूक्त - अथर्वा देवता - उच्छिष्टः, अध्यात्मम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - उच्छिष्ट ब्रह्म सूक्त

    ए॑करा॒त्रो द्वि॑रा॒त्रः स॑द्यः॒क्रीः प्र॒क्रीरु॒क्थ्यः। ओतं॒ निहि॑त॒मुच्छि॑ष्टे य॒ज्ञस्या॒णूनि॑ वि॒द्यया॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒क॒ऽरा॒त्र: । द्वि॒ऽरा॒त्र: । स॒द्य॒:ऽक्री: । प्र॒ऽक्री: । उ॒क्थ्या᳡: । आऽउ॑तम् । निऽहि॑तम् । उत्ऽशि॑ष्टे । य॒ज्ञस्य॑ । अ॒णूनि॑ । वि॒द्यया॑ ॥९.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एकरात्रो द्विरात्रः सद्यःक्रीः प्रक्रीरुक्थ्यः। ओतं निहितमुच्छिष्टे यज्ञस्याणूनि विद्यया ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एकऽरात्र: । द्विऽरात्र: । सद्य:ऽक्री: । प्रऽक्री: । उक्थ्या: । आऽउतम् । निऽहितम् । उत्ऽशिष्टे । यज्ञस्य । अणूनि । विद्यया ॥९.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 7; मन्त्र » 10

    पदार्थ -
    (एकरात्रः) एक रात्रिवाला, (द्विरात्रः) दो रात्रिवाला, (सद्यःक्रीः) तुरन्त ही मोल किया गया, (प्रक्रीः) मोल लेने योग्य, (उक्थ्यः) प्रशंसनीय [व्यवहार वा यज्ञ], [यह सब] (उच्छिष्टे) शेष [म० १। परमात्मा] में (ओतम्) ओत-प्रोत [भली-भाँति बुना हुआ] (निहितम्) रक्खा हुआ है, और (विद्यया) विद्या के साथ (यज्ञस्य) [ईश्वरपूजा आदि] के (अणूनि) सूक्ष्म रूप [रक्खे हैं] ॥१०॥

    भावार्थ - मनुष्य परमात्मा को सर्वव्यापक जानकर एक दिन वा दो दिन में वा तुरन्त, अथवा क्रय-विक्रय आदि से समाप्तियोग्य कर्मों को विचार कर अपना कर्त्तव्य सिद्ध करे ॥१०॥

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