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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 7/ मन्त्र 12
    सूक्त - अथर्वा देवता - उच्छिष्टः, अध्यात्मम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - उच्छिष्ट ब्रह्म सूक्त

    प्र॑तीहा॒रो नि॒धनं॑ विश्व॒जिच्चा॑भि॒जिच्च॒ यः। सा॑ह्नातिरा॒त्रावुच्छि॑ष्टे द्वादशा॒होऽपि॒ तन्मयि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒ति॒ऽहा॒र: । नि॒ऽधन॑म् । वि॒श्व॒ऽजित् । च॒ । अ॒भि॒ऽजित् । च॒ । य: । सा॒ह्न॒ऽअ॒ति॒रा॒त्रौ । उत्ऽशि॑ष्टे । द्वा॒द॒श॒ऽअ॒ह: । अपि॑ । तत् । मयि॑ ॥९.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रतीहारो निधनं विश्वजिच्चाभिजिच्च यः। साह्नातिरात्रावुच्छिष्टे द्वादशाहोऽपि तन्मयि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रतिऽहार: । निऽधनम् । विश्वऽजित् । च । अभिऽजित् । च । य: । साह्नऽअतिरात्रौ । उत्ऽशिष्टे । द्वादशऽअह: । अपि । तत् । मयि ॥९.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 7; मन्त्र » 12

    पदार्थ -
    (प्रतीहारः) प्रत्युपकार, (निधनम्) कुल [कुलवृद्धि] (च) और (विश्वजित्) संसार का जीतनेवाला (च) और (यः) जो (अभिजित्) सब ओर से जीतनेवाला [यज्ञ वा व्यवहार है, वह] (साह्नातिरात्रौ) उसी दिन पूरा होनेवाला और रात्रि बिताकर पूरा होनेवाला और (द्वादशाहः) बारह दिन में पूरा होनेवाला [यज्ञ वा व्यवहार] (अपि) भी (उच्छिष्टे) शेष [म० १। परमात्मा] में हैं, (तत्) वह (मयि) मुझ [उपासक] में [होवे] ॥१२॥

    भावार्थ - जो मनुष्य परमात्मा में आत्मसमर्पण करते हैं, वे संसार में परस्पर उपकार, कुलवृद्धि, जय और विविध समय का उपयोग करके उत्तम सुख भोगते हैं ॥१२॥

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