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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 7/ मन्त्र 8
    सूक्त - अथर्वा देवता - उच्छिष्टः, अध्यात्मम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - उच्छिष्ट ब्रह्म सूक्त

    अ॑ग्न्या॒धेय॒मथो॑ दी॒क्षा का॑म॒प्रश्छन्द॑सा स॒ह। उत्स॑न्ना य॒ज्ञाः स॒त्राण्युच्छि॒ष्टेऽधि॑ स॒माहि॑ताः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्नि॒ऽआ॒धेय॑म् । अथो॒ इति॑ । दी॒क्षा । का॒म॒ऽप्र: । छन्द॑सा । स॒ह । उत्ऽस॑न्ना: । य॒ज्ञा: । स॒त्त्राणि॑ । उत्ऽशि॑ष्टे । अधि॑ । स॒म्ऽआहि॑ता: ॥९.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्न्याधेयमथो दीक्षा कामप्रश्छन्दसा सह। उत्सन्ना यज्ञाः सत्राण्युच्छिष्टेऽधि समाहिताः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निऽआधेयम् । अथो इति । दीक्षा । कामऽप्र: । छन्दसा । सह । उत्ऽसन्ना: । यज्ञा: । सत्त्राणि । उत्ऽशिष्टे । अधि । सम्ऽआहिता: ॥९.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 7; मन्त्र » 8

    पदार्थ -
    (अग्न्याधेयम्) अग्न्याधान [अग्नि की स्थापना] (अथो) और (दीक्षा) दीक्षा [नियमपालन व्रत] (छन्दसा सह) वेद के साथ (कामप्रः) कामनापूरक व्यवहार, (उत्सन्नाः) ऊँचे चढ़े हुए (यज्ञाः) यज्ञ [पूजनीय व्यवहार] और (सत्राणि) बैठकें (उच्छिष्टे) शेष [म० १। परमात्मा] में (अधि) अधिकारपूर्वक (समाहिताः) एकत्र किये गये हैं ॥८॥

    भावार्थ - परमेश्वर ने अपने सामर्थ्य से मनुष्य को यथावत् उन्नति करने के लिये वेद के साथ सत्यव्रत धारण आदि नियमों का उपदेश किया है ॥८॥

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