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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 7/ मन्त्र 4
    सूक्त - अथर्वा देवता - उच्छिष्टः, अध्यात्मम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - उच्छिष्ट ब्रह्म सूक्त

    दृ॒ढो दृं॑हस्थि॒रो न्यो ब्रह्म॑ विश्व॒सृजो॒ दश॑। नाभि॑मिव स॒र्वत॑श्च॒क्रमुच्छि॑ष्टे दे॒वताः॑ श्रि॒ताः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दृ॒ढ: । दृं॒ह॒ऽस्थि॒र: । न्य: । ब्रह्म॑ । वि॒श्व॒ऽसृज॑: । दश॑ । नाभि॑म्ऽइव । स॒र्वत॑: । च॒क्रम् । उत्ऽशि॑ष्टे । दे॒वता॑: । श्रि॒ता: ॥९.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दृढो दृंहस्थिरो न्यो ब्रह्म विश्वसृजो दश। नाभिमिव सर्वतश्चक्रमुच्छिष्टे देवताः श्रिताः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दृढ: । दृंहऽस्थिर: । न्य: । ब्रह्म । विश्वऽसृज: । दश । नाभिम्ऽइव । सर्वत: । चक्रम् । उत्ऽशिष्टे । देवता: । श्रिता: ॥९.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 7; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (दृढः) दृढ़, (दृंहस्थिरः) वृद्धि के साथ स्थिर और (न्यः) नायक [गुण] (ब्रह्म) वेदज्ञान और (दश) दस [आकाश, वायु, तेज, जल, पृथिवी यह पाँच भूत, और शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध ये पाँच तन्मात्राएँ] (विश्वसृजः) संसार बनानेवाले (देवताः) दिव्य पदार्थ (उच्छिष्टे) शेष [म० १ परमात्मा] में (आश्रिताः) आश्रित हैं, (इव) जैसे (नाभिम् सर्वतः) नाभि के सब ओर (चक्रम्) पहिया [पहिये का प्रत्येक अरा लगा होता है] ॥४॥

    भावार्थ - परमात्मा की शक्ति में संसार के उत्तम-उत्तम अचल नियम और पञ्चभूत और पञ्चतन्मात्रा आदि वर्तमान हैं ॥४॥

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