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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 7/ मन्त्र 18
    सूक्त - अथर्वा देवता - उच्छिष्टः, अध्यात्मम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - उच्छिष्ट ब्रह्म सूक्त

    समृ॑द्धि॒रोज॒ आकू॑तिः क्ष॒त्रं रा॒ष्ट्रं षडु॒र्व्यः। सं॑वत्स॒रोऽध्युच्छि॑ष्ट॒ इडा॑ प्रै॒षा ग्रहा॑ ह॒विः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम्ऽऋ॑ध्दि: । ओज॑: । आऽकू॑ति: । क्ष॒त्रम् । रा॒ष्ट्रम् । षट् । उ॒र्व्य᳡: । स॒म्ऽव॒त्स॒र: । अधि॑ । उत्ऽशि॑ष्टे । इडा॑ । प्र॒ऽए॒षा: । ग्रहा॑: । ह॒वि: ॥९.१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समृद्धिरोज आकूतिः क्षत्रं राष्ट्रं षडुर्व्यः। संवत्सरोऽध्युच्छिष्ट इडा प्रैषा ग्रहा हविः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्ऽऋध्दि: । ओज: । आऽकूति: । क्षत्रम् । राष्ट्रम् । षट् । उर्व्य: । सम्ऽवत्सर: । अधि । उत्ऽशिष्टे । इडा । प्रऽएषा: । ग्रहा: । हवि: ॥९.१८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 7; मन्त्र » 18

    पदार्थ -
    (समृद्धिः) समृद्धि [सर्वथा वृद्धि] (ओजः) पराक्रम (आकूतिः) संकल्प [मन में विचार] (क्षत्रम्) हानि से रक्षक [क्षत्रियपन] (राष्ट्रम्) राज्य और (षट्) छह (उर्व्यः) फैली [दिशाएँ]। (संवत्सरः) वर्ष (इडा) वाणी, (प्रैषाः) प्रेरणाएँ, (ग्रहाः) अनेक प्रयत्न और (हविः) ग्राह्य वस्तु (उच्छिष्टे) शेष [म० १। परमात्मा] में (अधि) अधिकारपूर्वक हैं ॥१८॥

    भावार्थ - परमेश्वर में पूर्ण विश्वास से मनुष्य दिशाओं अर्थात् देश और संवत्सर अर्थात् काल का विचार करके सदा प्रयत्न के साथ राज्य आदि व्यवहार करें ॥१८॥

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