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अथर्ववेद > काण्ड 15 > सूक्त 13

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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 13/ मन्त्र 13
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - सतः पङ्क्ति छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    अ॒स्यै दे॒वता॑याउद॒कं या॑चामी॒मां दे॒वतां॑ वासय इ॒मामि॒मां दे॒वतां॒ परि॑ वेवे॒ष्मीत्ये॑नं॒परि॑ वेविष्यात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्यै । दे॒वता॑यै । उ॒द॒कम् । या॒चा॒मि॒ । इ॒माम् । दे॒वता॑म् । वा॒स॒ये॒ । इ॒माम् । इ॒माम् । दे॒वता॑म् । परि॑ । वे॒वे॒ष्मि॒ । ए॒न॒म् । परि॑। वे॒वि॒ष्या॒त् ॥१३.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्यै देवतायाउदकं याचामीमां देवतां वासय इमामिमां देवतां परि वेवेष्मीत्येनंपरि वेविष्यात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्यै । देवतायै । उदकम् । याचामि । इमाम् । देवताम् । वासये । इमाम् । इमाम् । देवताम् । परि । वेवेष्मि । एनम् । परि। वेविष्यात् ॥१३.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 13; मन्त्र » 13

    पदार्थ -
    (अस्यै) उस (देवतायै)देवता [विद्वान्] को (उदकम्) जल (याचामि) समर्पण करता हूँ, (इमाम्) उस (देवताम्)देवता [विद्वान्] को (वासये) ठहराता हूँ, (इमाम् इमाम्) उस ही (देवताम्) देवता [विद्वान्] को (परि वेवेष्मि) भोजन परोसता हूँ−(इति) इस प्रकार से (एनम्) उस [विद्वान्] की (परि वेविष्यात्) [भोजन आदि से] सेवा करे ॥१३॥

    भावार्थ - गृहस्थ को योग्य है किपूर्वोक्त प्रकार से छली-कपटी झूठे वेषधारी को दण्ड देवे और जो सत्यव्रतधारीब्रह्मज्ञानी अतिथि हो, उसका यथावत् आदर मान करे और सब प्रकार जल, अन्न, स्थानआदि से उसकी सेवा करे ॥१३, १४॥

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