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अथर्ववेद > काण्ड 15 > सूक्त 13

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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 13/ मन्त्र 9
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - द्विपदा निचृत गायत्री छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    तद्यस्यै॒वंवि॒द्वान्व्रात्योऽप॑रिमिता॒ रात्री॒रति॑थिर्गृ॒हे वस॑ति॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । तस्य॑ । ए॒वम् । वि॒द्वान् । व्रात्य॑: । अप॑रिऽमिता: । रात्री॑: । अति॑थि: । गृ॒हे । वस॑ति ॥१३.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तद्यस्यैवंविद्वान्व्रात्योऽपरिमिता रात्रीरतिथिर्गृहे वसति॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत् । तस्य । एवम् । विद्वान् । व्रात्य: । अपरिऽमिता: । रात्री: । अतिथि: । गृहे । वसति ॥१३.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 13; मन्त्र » 9

    पदार्थ -
    (तत्) सो (एवम्)व्यापक परमात्मा को (विद्वान्) जानता हुआ (व्रात्यः) व्रात्य [सत्यव्रतधारी] (अतिथिः) अतिथि (अपरिमिताः) असंख्य (रात्रीः) रात्रियों (यस्य) जिस के (गृहे) घरमें (वसति) बसता है ॥९॥

    भावार्थ - जब मनुष्य को बड़ेविद्वान् अतिथि से बहुत दिनों सत्सङ्ग करने का अवसर मिले, तो वह उससेब्रह्मविद्या, राज्यविद्या आदि अनेक शुभविद्याएँ प्राप्त करके उन्नति करे ॥९, १०॥

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