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अथर्ववेद > काण्ड 15 > सूक्त 13

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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 13/ मन्त्र 11
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - प्राजापत्या पङ्क्ति छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    अथ॒यस्याव्रा॑त्यो व्रात्यब्रु॒वो ना॑मबिभ्र॒त्यति॑थिर्गृ॒हाना॒गच्छे॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अथ॑ । यस्य॑ । अव्रा॑त्य: । व्रा॒त्य॒ऽध्रु॒व: । ना॒म॒ऽबि॒भ्र॒ती । अति॑थि: । गृ॒हान् । आ॒ऽगच्छे॑त् ॥१३.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अथयस्याव्रात्यो व्रात्यब्रुवो नामबिभ्रत्यतिथिर्गृहानागच्छेत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अथ । यस्य । अव्रात्य: । व्रात्यऽध्रुव: । नामऽबिभ्रती । अतिथि: । गृहान् । आऽगच्छेत् ॥१३.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 13; मन्त्र » 11

    पदार्थ -
    (अथ) और फिर (अव्रात्यः) अव्रात्य [कुव्रतधारी] (व्रात्यब्रुवः) अपने को व्रात्य [सत्यव्रतधारी] बताता हुआ, (नामबिभ्रती) केवल नाम धारण करता हुआ (अतिथिः) अतिथि (यस्य) जिस [गृहस्थ] के (गृहान्) घरों में (आगच्छेत्) आजावे ॥११॥

    भावार्थ - यदि कोई छली-कपटीमिथ्यावादी मनुष्य अपने को सत्यव्रतधारी अतिथि बताकर आजावे, गृहस्थ उस पाखण्डीधूर्त को अवश्य निरादर करके निकाल देवे, और अगले दो मन्त्रों के अनुसार वर्तावकरे ॥११, १२॥

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