अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 13/ मन्त्र 10
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - द्विपदा विराट् गायत्री
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
य ए॒वाप॑रिमिताः॒पुण्या॑ लो॒कास्ताने॒व तेनाव॑ रुन्द्धे॥
स्वर सहित पद पाठये । ए॒व । अप॑रिऽमिता: । पुण्या॑: । लो॒का: । तान् । ए॒व । तेन॑ । अव॑ । रु॒न्ध्दे॒ ॥१३.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
य एवापरिमिताःपुण्या लोकास्तानेव तेनाव रुन्द्धे॥
स्वर रहित पद पाठये । एव । अपरिऽमिता: । पुण्या: । लोका: । तान् । एव । तेन । अव । रुन्ध्दे ॥१३.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 13; मन्त्र » 10
विषय - अतिथि और अनतिथि के विषय का उपदेश।
पदार्थ -
(ये) जो (एव) निश्चयकरके (अपरिमिताः) असंख्य (पुण्याः) पवित्र (लोकाः) लोक [दर्शनीय समाज] हैं, (तान्) उनको (एव) निश्चय करके (तेन) उस [अतिथिसत्कार] से (अव रुन्द्धे) वह [गृहस्थ] सुरक्षित करता है ॥१०॥
भावार्थ - जब मनुष्य को बड़ेविद्वान् अतिथि से बहुत दिनों सत्सङ्ग करने का अवसर मिले, तो वह उससेब्रह्मविद्या, राज्यविद्या आदि अनेक शुभविद्याएँ प्राप्त करके उन्नति करे ॥९, १०॥
टिप्पणी -
९, १०−(अपरिमिताः)असंख्याताः (रात्रीः) (लोकाः) दर्शनीयाः॥