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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 9/ मन्त्र 24
    सूक्त - अथर्वा देवता - कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - विराट् सूक्त

    केव॒लीन्द्रा॑य दुदु॒हे हि गृ॒ष्टिर्वशं॑ पी॒यूषं॑ प्रथ॒मं दुहा॑ना। अथा॑तर्पयच्च॒तुर॑श्चतु॒र्धा दे॒वान्म॑नु॒ष्याँ॒ असु॑रानु॒त ऋषी॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    केव॑ली । इन्द्रा॑य । दु॒दु॒हे । हि । गृ॒ष्टि: । वश॑म् । पी॒यूष॑म् । प्र॒थ॒मम् । दुहा॑ना । अथ॑ । अ॒त॒र्प॒य॒त् । च॒तुर॑: । च॒तु॒:ऽधा: । दे॒वान् । म॒नु॒ष्या᳡न् । असु॑रान् । उ॒त । ऋषी॑न् ॥९.२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    केवलीन्द्राय दुदुहे हि गृष्टिर्वशं पीयूषं प्रथमं दुहाना। अथातर्पयच्चतुरश्चतुर्धा देवान्मनुष्याँ असुरानुत ऋषीन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    केवली । इन्द्राय । दुदुहे । हि । गृष्टि: । वशम् । पीयूषम् । प्रथमम् । दुहाना । अथ । अतर्पयत् । चतुर: । चतु:ऽधा: । देवान् । मनुष्यान् । असुरान् । उत । ऋषीन् ॥९.२४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 9; मन्त्र » 24

    पदार्थ -
    (प्रथमम्) पहिले से (दुहाना) पूर्ति करती हुई, (केवली) अकेली (गृष्टिः) ग्रहणयोग्य [विराट्] ने (हि) ही (इन्द्राय) जीव के लिये (वशम्) प्रभुता और (पीयूषम्) अमृत [अन्न, दुग्ध आदि] (दुदुहे) पूर्ण कर दिया है (अथ) तब उस [विराट्] ने (चतुर्धा) चार प्रकार से [धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष द्वारा] (चतुरः) चारों (देवान्) विजय चाहनेवालों, (मनुष्यान्) मननशीलों, (असुरान्) बुद्धिमानों (उत) और (ऋषीन्) ऋषियों [धर्म के साक्षात् करनेवालों] को (अतर्पयत) तृप्त किया है ॥२४॥

    भावार्थ - परमेश्वर ने अपनी शक्ति से प्राणियों के पालन के लिये उनके कर्म अनुसार सब सामग्री उपस्थित करके उनके पुरुषार्थ द्वारा उन्हें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का भागी बनाया है ॥२४॥

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