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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 9/ मन्त्र 11
    सूक्त - अथर्वा देवता - कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः छन्दः - जगती सूक्तम् - विराट् सूक्त

    इ॒यमे॒व सा या प्र॑थ॒मा व्यौच्छ॑दा॒स्वित॑रासु चरति॒ प्रवि॑ष्टा। म॒हान्तो॑ अस्यां महि॒मानो॑ अ॒न्तर्व॒धूर्जि॑गाय नव॒गज्जनि॑त्री ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒यम् । ए॒व । सा । या । प्र॒थ॒मा । वि॒ऽऔच्छ॑त् । आ॒सु । इत॑रासु । च॒र॒ति॒ । प्रऽवि॑ष्टा । म॒हान्त॑: । अ॒स्या॒म् । म॒हि॒मान॑: । अ॒न्त: । व॒धू: । जि॒गा॒य॒ । न॒व॒ऽगत् । जनि॑त्री ॥९.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इयमेव सा या प्रथमा व्यौच्छदास्वितरासु चरति प्रविष्टा। महान्तो अस्यां महिमानो अन्तर्वधूर्जिगाय नवगज्जनित्री ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इयम् । एव । सा । या । प्रथमा । विऽऔच्छत् । आसु । इतरासु । चरति । प्रऽविष्टा । महान्त: । अस्याम् । महिमान: । अन्त: । वधू: । जिगाय । नवऽगत् । जनित्री ॥९.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 9; मन्त्र » 11

    पदार्थ -
    (इयम् एव) यही (सा) यह ईश्वरी, [विराट्, ईश्वरशक्ति] है, (या) जो (प्रथमा) प्रथम (व्यौच्छत्) प्रकाशमान हुई है, और (आसु) इन सब और (इतरासु) दूसरी [सृष्टियों] में (प्रविष्टा) प्रविष्ट होकर (चरति) विचरती है। (अस्याम् अन्तः) इसके भीतर (महान्तः) बड़ी-बड़ी (महिमानः) महिमाएँ हैं, उस (नवगत्) नवीन-नवीन गतिवाली (वधूः) प्राप्तियोग्य (जनित्री) जननी ने [अनर्थों को] (जिगाय) जीत लिया है ॥११॥

    भावार्थ - ईश्वरशक्ति की महिमाओं को अनुभव करके विद्वान् लोग विघ्नों का नाश करते हैं ॥११॥ यह मन्त्र आचुका है-अ० ३।१०।४ ॥

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