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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 9/ मन्त्र 5
    सूक्त - अथर्वा देवता - कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - विराट् सूक्त

    बृ॑ह॒ती परि॒ मात्रा॑या मा॒तुर्मात्राधि॒ निर्मि॑ता। मा॒या ह॑ जज्ञे मा॒याया॑ मा॒याया॒ मात॑ली॒ परि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृ॒ह॒ती । परि॑ । मात्रा॑या: । मा॒तु: । मात्रा॑ । अधि॑ । नि:ऽमि॑ता । मा॒या । ह॒ । ज॒ज्ञे॒ । मा॒याया॑: । मा॒याया॑: । मात॑ली । परि॑ ॥९.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहती परि मात्राया मातुर्मात्राधि निर्मिता। माया ह जज्ञे मायाया मायाया मातली परि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बृहती । परि । मात्राया: । मातु: । मात्रा । अधि । नि:ऽमिता । माया । ह । जज्ञे । मायाया: । मायाया: । मातली । परि ॥९.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 9; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    (बृहती) स्थूल सृष्टि (मात्रायाः) तन्मात्रा से (परि) सब प्रकार और (मातुः) निर्माता [परमेश्वर] से (अधि) ही (मात्रा) तन्मात्रा (निर्मिता) बनी है। (माया) बुद्धि (ह) निश्चय करके (मायायाः) बुद्धिरूप परमेश्वर से और (मायायाः) प्रज्ञारूप परमेश्वर से (मातली) इन्द्र [जीव] का रथवान् [अहंकार वा मन] (परि) सब प्रकार (जज्ञे) उत्पन्न हुआ ॥५॥

    भावार्थ - परमेश्वर के सामर्थ्य से स्थूल और सूक्ष्म जगत्, और इन्द्र, अर्थात्, जीव का रथवान् मन भी उत्पन्न हुआ है ॥५॥ मन को अन्यत्र भी रथवान् सा माना है-यजु० ३४।६ ॥ सु॒षा॒रथिरश्वा॒निव॒ यन्म॑नु॒ष्यान्नेनी॒यते॒ऽभीशु॑भिर्वा॒जिन॑ इव। हृ॒त्प्रति॑ष्ठं॒ यद॑जि॒रं जवि॑ष्ठं॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस॑ङ्कल्पमस्तु ॥ जो [मन] मनुष्यों को [इन्द्रियों के द्वारा] लगातार लिये-लिये फिरता है, जैसे चतुर रथवान् वेगवाले घोड़ों को बागडोर से, जो हृदय में ठहरा हुआ, सबका चलानेहारा, पहाड़ी वेगवाला है वह मेरा मन मङ्गल विचार युक्त हो ॥

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