अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 8/ मन्त्र 14
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - सर्वशीर्षामयापाकरणम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मनिवारण सूक्त
या हृद॑यमुप॒र्षन्त्य॑नुत॒न्वन्ति॒ कीक॑साः। अहिं॑सन्तीरनाम॒या निर्द्र॑वन्तु ब॒हिर्बिल॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठया: । हृद॑यम् । उ॒प॒ऽऋ॒षन्ति॑ । अ॒नु॒ऽत॒न्वन्ति॑ । कीक॑सा: । अहिं॑सन्ती: । अ॒ना॒म॒या: । नि: । द्र॒व॒न्तु॒ । ब॒हि: । बिल॑म् ॥१३.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
या हृदयमुपर्षन्त्यनुतन्वन्ति कीकसाः। अहिंसन्तीरनामया निर्द्रवन्तु बहिर्बिलम् ॥
स्वर रहित पद पाठया: । हृदयम् । उपऽऋषन्ति । अनुऽतन्वन्ति । कीकसा: । अहिंसन्ती: । अनामया: । नि: । द्रवन्तु । बहि: । बिलम् ॥१३.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 8; मन्त्र » 14
विषय - समस्त शरीर के रोग नाश का उपदेश। इस सूक्त का मिलान अ० का० २ सूक्त ३३ से करो।
पदार्थ -
(याः) जो [महापीड़ाएँ] (हृदयम्) हृदय में (उपर्षन्ति) घुस जाती हैं और (कीकसाः) हँसली की हड्डियों में (अनुतन्वन्ति) फैलती जाती हैं, वे (अहिंसन्तीः) न सताती हुई... १३ ॥१४॥
भावार्थ - जैसे उत्तम वैद्य निदान पूर्व बाहिरी और भीतरी रोगों का नाश करके मनुष्यों को हृष्ट-पुष्ट बनाता है, वैसे ही विद्वान् लोग विचारपूर्वक अविद्या को मिटा कर आनन्दित होते हैं ॥१॥ यही भावार्थ २ से २२ तक अगले मन्त्रों में जानो ॥
टिप्पणी -
१४−(याः) अर्षण्यः (उपर्षन्ति) ऋषी गतौ। प्रविशन्ति (अनुतन्वन्ति) अनुलक्ष्य विस्तीर्यन्ते (कीकसाः) अ० २।३३।२। जत्रुवक्षोगतास्थीनि। अन्यत् पूर्ववत् ॥