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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 8/ मन्त्र 21
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - सर्वशीर्षामयापाकरणम् छन्दः - विराट्पथ्या बृहती सूक्तम् - यक्ष्मनिवारण सूक्त

    पादा॑भ्यां ते॒ जानु॑भ्यां॒ श्रोणि॑भ्यां॒ परि॒ भंस॑सः। अनू॑कादर्ष॒णीरु॒ष्णिहा॑भ्यः शी॒र्ष्णो रोग॑मनीनशम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पादा॑भ्याम् । ते॒ । जानु॑ऽभ्याम् । श्रोणि॑ऽभ्याम् । परि॑ । भंस॑स: । अनू॑कात् । अ॒र्ष॒णी: । उ॒ष्णिहा॑भ्य: । शी॒र्ष्ण: । रोग॑म् । अ॒नी॒न॒श॒म् ॥१३.२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पादाभ्यां ते जानुभ्यां श्रोणिभ्यां परि भंससः। अनूकादर्षणीरुष्णिहाभ्यः शीर्ष्णो रोगमनीनशम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पादाभ्याम् । ते । जानुऽभ्याम् । श्रोणिऽभ्याम् । परि । भंसस: । अनूकात् । अर्षणी: । उष्णिहाभ्य: । शीर्ष्ण: । रोगम् । अनीनशम् ॥१३.२१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 8; मन्त्र » 21

    पदार्थ -
    (ते) तेरे (पादाभ्याम्) दोनों पैरों से, (जानुभ्याम्) दोनों जानुओं से, (श्रोणिभ्याम्) दोनों कूल्हों से और (भंससः परि) गुह्य स्थान के चारों ओर से, (अनूकात्) रीढ़ से और (उष्णिहाभ्यः) गुद्दी की नाड़ियों से (अर्षणीः) महापीड़ाओं को और (शीर्ष्णः) शिर के (रोगम्) रोग को (अनीनशम्) मैंने नाश कर दिया है ॥२१॥

    भावार्थ - जैसे उत्तम वैद्य निदान पूर्व बाहिरी और भीतरी रोगों का नाश करके मनुष्यों को हृष्ट-पुष्ट बनाता है, वैसे ही विद्वान् लोग विचारपूर्वक अविद्या को मिटा कर आनन्दित होते हैं ॥१॥ यही भावार्थ २ से २२ तक अगले मन्त्रों में जानो ॥

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