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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 8/ मन्त्र 15
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - सर्वशीर्षामयापाकरणम् छन्दः - विराडनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मनिवारण सूक्त

    याः पा॒र्श्वे उ॑प॒र्षन्त्य॑नु॒निक्ष॑न्ति पृ॒ष्टीः। अहिं॑सन्तीरनाम॒या निर्द्र॑वन्तु ब॒हिर्बिल॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या: । पा॒र्श्वे इति॑ । उ॒प॒ऽऋ॒षन्ति॑ । अ॒नु॒ऽनिक्ष॑न्ति । पृ॒ष्टी: । अहिं॑सन्ती: । अ॒ना॒म॒या: । नि: । द्र॒व॒न्तु॒ । ब॒हि: । बिल॑म् ॥१३.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    याः पार्श्वे उपर्षन्त्यनुनिक्षन्ति पृष्टीः। अहिंसन्तीरनामया निर्द्रवन्तु बहिर्बिलम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    या: । पार्श्वे इति । उपऽऋषन्ति । अनुऽनिक्षन्ति । पृष्टी: । अहिंसन्ती: । अनामया: । नि: । द्रवन्तु । बहि: । बिलम् ॥१३.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 8; मन्त्र » 15

    पदार्थ -
    (याः) जो [महापीड़ाएँ] (पार्श्वे) दोनों काँखों में (उपर्षन्ति) घुस जाती हैं और (पृष्टीः) पसलियों को (अनुनिक्षन्ति) चुबा डालती हैं, वे (अहिंसन्तीः) न सताती हुई... १३ ॥१५॥

    भावार्थ - जैसे उत्तम वैद्य निदान पूर्व बाहिरी और भीतरी रोगों का नाश करके मनुष्यों को हृष्ट-पुष्ट बनाता है, वैसे ही विद्वान् लोग विचारपूर्वक अविद्या को मिटा कर आनन्दित होते हैं ॥१॥ यही भावार्थ २ से २२ तक अगले मन्त्रों में जानो ॥

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