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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 8/ मन्त्र 17
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - सर्वशीर्षामयापाकरणम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मनिवारण सूक्त

    या गुदा॑ अनु॒सर्प॑न्त्या॒न्त्राणि॑ मो॒हय॑न्ति च। अहिं॑सन्तीरनाम॒या निर्द्र॑वन्तु ब॒हिर्बिल॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या: । गुदा॑: । अ॒नु॒ऽसर्प॑न्ति । आ॒न्त्राणि॑ । मो॒हय॑न्ति । च॒ । अहिं॑सन्ती: । अ॒ना॒म॒या: । नि: । द्र॒व॒न्तु॒ । ब॒हि: । बिल॑म् ॥१३.१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या गुदा अनुसर्पन्त्यान्त्राणि मोहयन्ति च। अहिंसन्तीरनामया निर्द्रवन्तु बहिर्बिलम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    या: । गुदा: । अनुऽसर्पन्ति । आन्त्राणि । मोहयन्ति । च । अहिंसन्ती: । अनामया: । नि: । द्रवन्तु । बहि: । बिलम् ॥१३.१७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 8; मन्त्र » 17

    पदार्थ -
    (याः) जो [महापीड़ाएँ] (गुदाः) गुदा की नाड़ियों में (अनुसर्पन्ति) रेंगती जाती हैं (च) और (आन्त्राणि) आँतों को (मोहयन्ति) गड़बड़ कर देती हैं, वे (अहिंसन्तीः) न सताती हुई... १३ ॥१७॥

    भावार्थ - जैसे उत्तम वैद्य निदान पूर्व बाहिरी और भीतरी रोगों का नाश करके मनुष्यों को हृष्ट-पुष्ट बनाता है, वैसे ही विद्वान् लोग विचारपूर्वक अविद्या को मिटा कर आनन्दित होते हैं ॥१॥ यही भावार्थ २ से २२ तक अगले मन्त्रों में जानो ॥

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