अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 8/ मन्त्र 18
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - सर्वशीर्षामयापाकरणम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मनिवारण सूक्त
या म॒ज्ज्ञो नि॒र्धय॑न्ति॒ परूं॑षि विरु॒जन्ति॑ च। अहिं॑सन्तीरनाम॒या निर्द्र॑वन्तु ब॒हिर्बिल॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठया: । म॒ज्ज्ञ: । नि॒:ऽधय॑न्ति । परूं॑षि । वि॒ऽरु॒जन्ति॑ । च॒ । अहिं॑सन्ती: । अ॒ना॒म॒या: । नि: । द्र॒व॒न्तु॒ । ब॒हि: । बिल॑म् ॥१३.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
या मज्ज्ञो निर्धयन्ति परूंषि विरुजन्ति च। अहिंसन्तीरनामया निर्द्रवन्तु बहिर्बिलम् ॥
स्वर रहित पद पाठया: । मज्ज्ञ: । नि:ऽधयन्ति । परूंषि । विऽरुजन्ति । च । अहिंसन्ती: । अनामया: । नि: । द्रवन्तु । बहि: । बिलम् ॥१३.१८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 8; मन्त्र » 18
विषय - समस्त शरीर के रोग नाश का उपदेश। इस सूक्त का मिलान अ० का० २ सूक्त ३३ से करो।
पदार्थ -
(याः) जो [महापीड़ाएँ] (मज्ज्ञः) मज्जाओं [हड्डी की मींगों] को (निर्धयन्ति) चूस लेती हैं (च) और (परूँषि) जोड़ों को (विरुजन्तिः) फोड़ डालती हैं, वे (अहिंसन्तीः) न सताती हुई, (अनामयाः) रोगरहित होकर (बहिः) बाहिर (निः द्रवन्तु) निकल जावें, और (बिलम्) बिल [फूटन रोग भी निकल जावे] ॥१८॥
भावार्थ - जैसे उत्तम वैद्य निदान पूर्व बाहिरी और भीतरी रोगों का नाश करके मनुष्यों को हृष्ट-पुष्ट बनाता है, वैसे ही विद्वान् लोग विचारपूर्वक अविद्या को मिटा कर आनन्दित होते हैं ॥१॥ यही भावार्थ २ से २२ तक अगले मन्त्रों में जानो ॥
टिप्पणी -
१८−(याः) अर्षण्यः (मज्ज्ञः) अ० १।११।४। अस्थिमध्यस्थस्नेहान् (निर्धयन्ति) धेट् पाने। नितरां पिबन्ति (परूँषि) ग्रन्थीन्। अन्यत् पूर्ववत्-म० १३ ॥