यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 1
स॒मिधा॒ग्निं दु॑वस्यत घृ॒तैर्बो॑धय॒ताति॑थिम्। आस्मि॑न् ह॒व्या जु॑होतन॥१॥
स्वर सहित पद पाठस॒मिधेति॑ स॒म्ऽइधा॑। अ॒ग्निम्। दु॒व॒स्य॒त॒। घृ॒तैः। बो॒ध॒य॒त॒। अति॑थिम्। आ। अ॒स्मि॒न्। ह॒व्या। जु॒हो॒त॒न॒ ॥१॥
स्वर रहित मन्त्र
समिधाग्निन्दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम् आस्मिन्हव्या जुहोतन ॥
स्वर रहित पद पाठ
समिधेति सम्ऽइधा। अग्निम्। दुवस्यत। घृतैः। बोधयत। अतिथिम्। आ। अस्मिन्। हव्या। जुहोतन॥१॥
विषय - अब तीसरे अध्याय के पहले मन्त्र में भौतिक अग्नि का किस-किस काम में उपयोग करना चाहिये, इस विषय का उपदेश किया जाता है ।
भाषार्थ -
हे विद्वानो! तुम (समिधा) अच्छे प्रकार अग्नि को प्रदीप्त करने वाली समिधा से (घृतैः) शुद्ध सुगन्धि आदि से युक्त घृत आदि से एवं यानों में जल-वाष्प आदि से (अग्निम्) भौतिक अग्नि को (उद्दीपयत) प्रदीप्त करो और उसकी (अतिथिम्) जिसकी आने और जाने की तिथि निश्चित नहीं, उस अतिथि के समान (दुवस्यत) सेवा करो। तथा (अस्मिन्) इस अग्नि में (हव्या) होम करने योग्य द्रव्य, एवं देने खाने और ग्रहण करने योग्य वस्तुओं का (आजुहोतन) उत्तम रीति से होम करो ।। ३ । १ ।।
भावार्थ -
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है । जैसे गृहस्थ लोग आसन, अन्न, जल, वस्त्र, प्रिय वचन आदि से उत्तम गुण वाले अतिथि को सेवा करते हैं, वैसे ही विद्वान् लोग यज्ञ वेदी, कलायन्त्र, यानों में अग्नि को स्थापित करके यथायोग्य ईंधन, घृत, जल आदि से प्रदीप्त करके वायु और जल की शुद्धि एवं यानों में उपयोग करके संसार का उपकार सदा किया करें ॥ ३ ॥ १।।
प्रमाणार्थ -
(समिधा) यहाँ'सम्' उपसर्ग पूर्वक 'इन्ध' धातु से 'कृतो बहुलम्' [अ० ३ ।३ ।११३] वार्त्तिक से करण अर्थ में 'क्विप्' प्रत्यय है। (घृतैः) शब्द निघं० (१ । १२) में जलनामों में पढ़ा है। बहुत से साधनों को प्रकाशित करने के लिये यहाँबहुवचन का प्रयोग है। (हव्या) यहाँ'शेश्छन्दसि बहुलम्' [अ० ६ ।१ ।६८] सूत्र से 'शि' का लोप है। (जुहोतन) यहाँ 'हु' धातु के लोट् लकार के मध्यम पुरुष के बहुवचन में 'त' के स्थान में 'तप्तनप्तन०' [७ ।१ ।४५] सूत्र से 'तनप्' आदेश है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (६।५ ।५ । ६) में की गई है । ३ । १ ॥
भाष्यसार -
भाष्यसार- १. अतिथि यज्ञ-- गृहस्थ लोग जिसकी आने की तिथि निश्चित नहीं, ऐसे उत्तम गुण वाले अतिथि की आसन, अन्न, जल, वस्त्र, प्रियवचन आदि से सेवा करें ।
२. भौतिक अग्नि का उपयोग--जैसे गृहस्थ लोग अतिथि की सेवा करते हैं, इसी प्रकार विद्वान् लोग यज्ञवेदी, कलायन्त्र और यानों में उपयोग करें। यज्ञवेदी में भौतिक अग्नि को स्थापित करके समिधा (इन्धन) और घृत आदि पदार्थों की आहुति से इसे प्रदीप्त कर वायु और वृष्टिजल की शुद्धि करें। कलायन्त्र और यानों में उपयोग करके जल (वाष्प) के द्वारा यानों से संसार का उपकार करें ।।
३. अलंकार – यहाँ अतिथि से अग्नि की उपमा की गई है और मन्त्र में 'इव' आदि उपमावाचक शब्द लुप्त है। इसलिये वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है ।
अन्यत्र व्याख्यात -
अन्यत्र व्याख्यात- महर्षि ने इस मन्त्र का विनियोग संस्कार विधि (सामान्य प्रकररण) में समिधा की दूसरी आहुति देने में किया है।
महर्षि ने इस मन्त्र की व्याख्या ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (पंचमहायज्ञविषय) में इस प्रकार की है-- "(समिधाग्निं.) हे मनुष्यो! तुम लोग वायु, औषधि और वर्षा जल की शुद्धि से सब के उपकार के अर्थ घृतादि शुद्ध वस्तुओं और समिधा अर्थात् आम्र वा ढाक आदि काष्ठों से अतिथिरूप अग्नि को नित्य प्रकाशमान करो फिर उस अग्नि में होम करने के योग्य पुष्ट मधुर सुगन्धित अर्थात् दुग्ध, घृत, शर्करा, गुड़, केशर, कस्तूरी आदि और रोगनाशक जो सोमलता आदि सब प्रकार से शुद्ध द्रव्य हैं, उनका अच्छी प्रकार नित्य अग्निहोत्र करके सबका उपकार करो" ॥ १ ॥
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