यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 46
ऋषिः - आगस्त्य ऋषिः
देवता - इन्द्रमारुतौदेवते
छन्दः - भूरिक् पङ्क्ति,
स्वरः - पञ्चमः
3
मो षू ण॑ऽइ॒न्द्रात्र॑ पृ॒त्सु दे॒वैरस्ति॒ हि ष्मा॑ ते शुष्मिन्नव॒याः। म॒हश्चि॒द्यस्य॑ मी॒ढुषो॑ य॒व्या ह॒विष्म॑तो म॒रुतो॒ वन्द॑ते॒ गीः॥४६॥
स्वर सहित पद पाठमोऽइति॒ मो। सु। नः॒। इ॒न्द्र॒। अत्र॑। पृ॒त्स्विति॑ पृ॒त्ऽसु। दे॒वैः। अस्ति॑। हि। स्म॒। ते॒। शु॒ष्मि॒न्। अ॒व॒या इत्य॑व॒ऽयाः। म॒हः। चि॒त्। यस्य॑। मी॒ढुषः॑। य॒व्या। ह॒विष्म॑तः। म॒रुतः॑। वन्द॑ते। गीः ॥४६॥
स्वर रहित मन्त्र
मो षू ण इन्द्रात्र पृत्सु देवैरस्ति हि ष्मा ते शुष्मिन्नवयाः । महश्चिद्यस्य मीढुषो यव्या हविष्मतो मरुतो वन्दते गीः ॥
स्वर रहित पद पाठ
मोऽइति मो। सु। नः। इन्द्र। अत्र। पृत्स्विति पृत्ऽसु। देवैः। अस्ति। हि। स्म। ते। शुष्मिन्। अवया इत्यवऽयाः। महः। चित्। यस्य। मीढुषः। यव्या। हविष्मतः। मरुतः। वन्दते। गीः॥४६॥
विषय - ईश्वर और शूरवीर के सहाय से युद्ध में विजय होता है, इस विषय का उपदेश किया जाता है ।।
भाषार्थ -
हे (इन्द्र) शूरवीर वा जगदीश्वर! आप (अत्र) इस संसार में (पृत्सु) युद्धों में (देवैः) शूर विद्वानों के सहित (नः) हमारी (सु) अच्छे प्रकार (रक्ष) रक्षा करो (मो) मत (हिन्धि) हिंसा करो ।
हे (शुष्मिन्) अनन्त बल ईश्वर एवं पूर्ण बल वाले शूर! (स्म) इस समय (यस्य) जिस (ते) आपकी (महः) महान् (गी:) वाणी (हि) निश्चय से इन (मीढुष:) विद्या आदि उत्तम गुणों को सींचने वाले (हविष्मतः) प्रशस्त हवि देने वाले (महतः) ऋत्विक् जनों की (वन्दते) स्तुति करती है एवं उनके सद्गुणों को प्रकाशित करती है।
(चित्) जैसे यह लोग आपकी सदा वन्दना करते हैं एवं अभिवादन करके आनन्दित करते हैं, वैसे ही जो (अवयाः) यजन करने वाला यजमान (अस्ति) है, वह आपकी आज्ञा से जिन (यव्या) यव आदि उत्तम हवियों को अग्नि में (जुहोति) डालता है, वे हवियाँ सब प्राणियों को सुख देती हैं ।। ३ । ४६ ।।
भावार्थ -
इस मन्त्र में उपमा अलङ्कार है । जब सब मनुष्य परमेश्वर की आराधना करके, अच्छे प्रकार सामग्री को बनाकर, युद्धों में शत्रुओं को जीत कर, चक्रवर्त्ती राज्य को प्राप्त कर तथा उसकी रक्षा भी करके महान् आनन्द का सेवन करते हैं, तब 'सुराज्य' बनता है ।। ३ । ४६ ।।
प्रमाणार्थ -
(सू) सु । यहाँ 'निपातस्य च' [अ० ६ । १ । १३६] सूत्र से दीर्घ है। (पृत्सु) 'पृत्सु' शब्द निघं० (२। १७) में संग्राम-नामों में पढ़ा है । (स्मा) स्म । यहाँ 'निपातस्य च [अ० ६ । ३। १३६] सूत्र से दीर्घ है। (शुष्मिन्) 'शुष्म' शब्द निघं० (२ । ९) में बल-नामों में पढ़ा है। (यव्या) यव्यानि । यहाँ 'शेश्छन्दसि बहुलम्’ [अ०। ६ । १ । ७०] से 'शि' प्रत्यय का लोप है । (गीः) 'गिर्' शब्द निघं॰ (१ । ११) में वाणी-नामों में पढ़ा है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (२ । ५ । २ । २६-२८) में की गई है ।। ३ । ४६ ।।
भाष्यसार -
१. ईश्वर और शूरवीरों के सहाय से युद्ध में विजय-- ईश्वर और शूरवीर के लोग कृपा करके विद्वानों की तथा हमारी रक्षा करते हैं। अनन्त बलवान् जगदीश्वर तथा पूर्ण बलवान् शूरवीरों की महान् आनन्दकारक वाणी विद्वान् ऋत्विक् जनों की सदा प्रशंसा करती है, उनके गुणों को प्रकाशित करती हैं। जैसे यजमान और ऋत्विक् लोग यज्ञ से सबको आनन्दित करते हैं वैसे ही ईश्वर तथा शूरवीरों की सहायता से मनुष्य युद्धों में विजय प्राप्त करके सबको सुखी करें ।। ३ । ४६ ।।
२. अलङ्कार--यहाँ ऋत्विक् जनों से शूरवीरों की उपमा की गई है तथा मन्त्र में 'चित्' पद उपमार्थक है। इसलिये उपमा अलङ्कार है ।
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